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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते द्वादशमध्ययने गाथा ५
श्रीसमवसरणाध्ययनम् को कहते हैं, उसकी जो शङ्का करते हैं अथवा उससे जो अलग हटते हैं, उसे लवावशङ्की कहते हैं, वे लोकायतिक और शाक्य आदि हैं। इन दोनों के मत में आत्मा ही नहीं हैं, फिर उसकी क्रिया कहाँ से हो सकती है और
क्रिया से उत्पन्न कर्मबन्ध भी कहां से हो सकता है ? । अतः इनके मत में वास्तविक बन्ध नहीं है परन्तु आरोप मात्र से बन्ध है, यही बताते हैं - "बद्धा" अर्थात् जैसे लोक में कहते हैं कि "मैंने मुट्ठी बाँध ली, तथा मुट्ठी खोल दी" यहां मुट्ठी बाँधना और खोलना केवल आरोप है, वस्तुतः रस्सी आदि से वह बाँधी और खोली नहीं जाती है, तथा गाँठ और अञ्जलि में भी बाँधने और खोलने का व्यवहार देखा जाता है परन्तु कुछ भी बाँधा नहीं जाता है और खोला भी नहीं जाता है किन्तु एक प्रकार के आरोप से यह व्यवहार होता है, इसी तरह बद्ध
और मुक्त का जगत् में व्यवहार जानना चाहिए । बौद्ध, सभी पदार्थो को क्षणिक मानते हैं परन्तु क्षणिक पदार्थो में क्रिया का होना सम्भव नहीं है, इसलिए वे अक्रियावादी हैं । यद्यपि बौद्ध पाँच स्कन्ध मानते हैं परन्तु वह भी आरोपमात्र से मानते हैं, परमार्थरूप से नहीं क्योंकि उनका मन्तव्य यह है - कोई भी पदार्थ विज्ञान के द्वारा अपने स्वरूप को प्रकट करने में समर्थ नहीं है अर्थात् विज्ञान के द्वारा पदार्थों का स्वरूप नहीं जाना जा सकता है, क्योंकि अवयवी पदार्थ तत्त्व और अतत्त्व इन दोनों भेदों के द्वारा विचार करने पर पूरा समझने में नहीं आता है, इसी तरह अवयव भी परमाणु पर्यन्त विचार करने पर अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण आकार रहित होने से, स्वरूप को धारण नहीं करते हैं, अत एव कहा है कि "यथा - यथा"अर्थात् ज्यों - ज्यों पदार्थो का विचार किया जाता है, त्यों - त्यों उनका विवरण बढ़ता ही जाता है। इस प्रकार विचार करने पर पदार्थों को अपना विवरण बढ़ा
देना जब कि अच्छा लगता है तब हम क्या कर सकते हैं ? अर्थात् जिसका अन्त ही नहीं है, उसमें हम क्या विचारें। इस प्रकार का सिद्धान्त माननेवाले बौद्ध प्रच्छन्न रूप से नास्तिक हैं 11 उक्त सिद्धान्त को माननेवाले बौद्धों के मत में भूत और भविष्य के साथ वर्तमान क्षण का कोई सम्बन्ध न होने से क्रिया नहीं होती है और क्रिया के न होने से क्रियाजनित कर्मबन्ध भी नहीं होता है । (आशय यह है कि आनेवाला क्षण आया ही नहीं है और गया काल विद्यमान नहीं है तथा पूर्व और पीछे के क्षणों के साथ वर्तमान क्रिया का कोई सम्बन्ध नही है क्योंकि नाश हुए के साथ वर्तमान का सम्बन्ध नही होता है, अतः क्रिया के साथ सम्बन्ध न होने से उसके द्वारा कर्मबन्ध नहीं होता ।) इस प्रकार अक्रियावादी नास्तिक हैं। वे सब पदार्थो का खण्डन करते हुए कर्मबन्ध की आशङ्का से क्रिया का निषेध करते हैं । तथा आत्मा को सर्वव्यापक होने के कारण क्रिया रहित माननेवाले सांख्यदर्शनवाले भी अक्रियावादी हैं । अतः लोकायतिक, बौद्ध और सांख्यवादी बिना विचारे यह पूर्वोक्त सिद्धान्त मानते हैं । तथा वे जो यह कहते हैं कि मेरे मत के अनुसार ही पदार्थो का स्वरूप ठीक - ठीक घटता है, यह वे अज्ञान से कहते हैं। इस प्रकार इस श्लोक के पूर्वार्ध को काकाक्षिगोलक न्याय से अक्रियावादी के मत में भी लेना चाहिए।।४।।
- साम्प्रतमक्रियावादिनामज्ञानविजृम्भितं दर्शयितुमाह -
- अब शास्त्रकार अक्रियावादियों का अज्ञान बताने के लिए कहते हैंसम्मिस्सभावं च गिरा गहीए, से मुम्मुई होइ अणाणुवाई। इमं दुपक्खं इममेगपक्खं, आहंसु छलायतणं च कम्म
॥५॥ छाया - सम्मिश्रभावश गिरा गृहीते, स मूकमूको भवत्यननुवादी ।
इदं द्विपक्षमिदमेकपक्षमाहूश्छलायतनश कर्म । 1. टिपणी-बौद्धों के कथन का आशय यह है, घटपटादि अवयवी पदार्थ कपाल आदि अपने अवयवों से भिन्न है अथवा अभिन्न है, यह जब विचार किया जाता है तब वे भिन्न या अभिन्न कुछ भी प्रतीत नहीं होते हैं, क्योंकि-अवयवी के समस्त अवयवों को अलग अलग कर दें तो अवयवी नामक पदार्थ कोई देखने में नहीं आता है। ऐसी दशा में उसे अवयवों से अभिन्न कहें तो यह भी नहीं बनता है, क्योंकि घटपटादि पदार्थों के अवयवों का विचार करने पर अवयव के भी अवयव और उसके भी अवयव इस प्रकार अवयवों की धारा निरन्तर चलती हुई परमाणु में जाकर समाप्त होती है और परमाणु अतीन्द्रिय होने के कारण सामान्यदृष्टि से ज्ञात नहीं होते हैं, अतः अवयवों का ज्ञान भी अशक्य हैं, ऐसी दशा में कोई भी पदार्थ ज्ञान के द्वारा पूरा पूरा जाना नहीं जाता है, यह बौद्ध मानते हैं । इति ।
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