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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते द्वादशमध्ययने गाथा ४ श्रीसमवसरणाध्ययनम् ही मोक्ष का साधन बताते हैं । भावार्थ - सत्य को असत्य तथा असाधु को साधु बतानेवाले विनयवादी पूछने पर केवल विनय को ही मोक्ष का मार्ग कहते हैं। टीका - सद्भ्यो हितं "सत्यं" परमार्थो यथावस्थितपदार्थनिरूपणं वा मोक्षो वा संयमः तदुपायभूतो वा सत्यं तदसत्यम् "इति" एवं “विचिन्तयन्तो" मन्यमानाः, एवमसत्यमपि सत्यमिति मन्यमानाः, तथाहि - सम्यग्दर्शनचारित्राख्यो मोक्षमार्गः सत्यस्तमसत्यत्वेन चिन्तयन्तो विनयादेव मोक्ष इत्येतदसत्यमपि सत्यत्वेन मन्यमानाः, तथा असाधुमप्यविशिष्टकर्मकारिणं वन्दनादिकया विनयप्रतिपत्त्या साधुम् "इति" एवम् "उदाहरन्तः" प्रतिपादयन्तो न सम्यग्यथावस्थितधर्मस्य परीक्षकाः, युक्तिविकलं विनयादेव धर्म इत्येवमभ्युपगमात्, क एते इत्येतदाह- ये "इमे" बुद्धया प्रत्यक्षासन्नीकृता "जना इव" प्राकृतपुरुषा इव जना विनयेन चरन्ति वैनयिका - विनयादेव केवलात्स्वर्गमोक्षावाप्तिरित्येवंवादिनः "अनेके" बहवो द्वात्रिंशद्धेदभिन्नत्वात्तेषां, ते च 'विनयचारिणः केनचिद्धर्मार्थिना पृष्टाः सन्तोऽपिशब्दादपृष्टा वा "भावं" परमार्थं यथार्थोपलब्धं स्वाभिप्रायं वा विनयादेव स्वर्गमोक्षावाप्तिरित्येवं "व्यनैषः" विनीतवन्तः - सर्वदा सर्वस्य सर्वसिद्धये विनयं ग्राहितवन्तः, नामशब्दः संभावनायां, संभाव्यत एव विनयात्स्वकार्यसिद्धिरिति, तदुक्तम् - "तस्मात्कल्याणानां सर्वेषां भाजनं विनय" इति ॥३॥ किञ्चान्यत् - टीकार्थ - जो पुरुष मात्र का कल्याण करनेवाला वस्तु के यथार्थ स्वरूप का निरूपण है, उसे सत्य कहते हैं अथवा मोक्ष को या मोक्ष के उपाय स्वरूप संयम को सत्य कहते हैं, उस सत्य को विनयवादी असत्य मानते हैं, इसी तरह वे असत्य को सत्य मानते हैं। सम्यग्ज्ञान दर्शन और चरित्र सच्चा मोक्ष का मार्ग है, उसे विनयवादी असत्य कहते हैं, यद्यपि केवल विनय से मोक्ष नहीं होता है, तथापि वे केवल विनय से मोक्ष मानते हुए असत्य को सत्य मानते हैं तथा जो पुरुष विशिष्ट कर्म यानी साधु की क्रिया नहीं करनेवाला असाधु है, उसे भी वे केवल वन्दन आदि विनय की क्रिया करने मात्र से साधु मानते हैं । अतः वे धर्म की यथार्थ परीक्षा करनेवाले नहीं हैं, क्योंकि वे केवल विनय से धर्म की उत्पत्ति मानते हैं, जो युक्तिसङ्गत नहीं है । वे कौन है ? ये जो बुद्धि के प्रत्यक्ष और निकटवर्ती साधारण पुरुष की तरह केवल विनय के साथ विचरनेवाले वैनयिक मतवाले हैं, ये केवल विनय से स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति बतलाते हैं। इनके ३२ भेद होने से ये अनेक हैं । जब कोई धर्मार्थी पुरुष इनसे धर्म पूछता है तथा अपि शब्द से नहीं पूछता है तब ये अपने भाव (अभिप्राय) के अनुसार अपना माना हुआ परमार्थ बताते हुए कहते हैं कि - "केवल विनय करने से स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति होती है" इस प्रकार विनयवादी सब कार्य की सिद्धि के लिए सभी को विनय की शिक्षा देते हैं। नाम शब्द सम्भावना अर्थ में आया है, इसलिए वे विनय से अपने कार्य की सिद्धि की आशा करते हैं। वे कहते हैं कि - "सभी कल्याणों का भाजन विनय है" ॥३॥ अणोवसंखा इति ते उदाहू, अढे स ओभासइ अम्ह एवं । लवावसंकी य अणागएहिं, णो किरियमाहंसु अकिरियवादी ॥४॥ छाया - अनुपसंख्ययेति ते उदाहृतवन्तः अर्थः स्वोऽवभासतेऽस्माकमेवम् । लवावशङ्किनश्चानागतेनों क्रियामाहुरक्रियावादिनः । अन्वयार्थ - (ते अणोवसंखा) वे विनयवादी वस्तुतत्त्व को न समझकर (इति उदाहु) ऐसा कहते हैं । (स अढे अम्ह एवं ओभासइ) वे कहते हैं कि - अपने प्रयोजन की सिद्धि हम को विनय से ही दीखती है । (लवावसंकी) तथा कर्मबन्ध की शङ्का करनेवाले (अकिरियवादी) अक्रियावादी (अणागएहि) भूत और भविष्य के द्वारा वर्तमान की असिद्धि मानकर (णो, किरियमाहंसु) क्रिया का निषेध करते हैं । भावार्थ - विनयवादी कहते हैं कि - हमको अपने प्रयोजन की सिद्धि विनय से ही दिखती है परन्तु वे वस्तुतत्त्व 1. ०कारिणः । 2. ०लम्भं प्र० । ५१०
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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