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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते द्वादशमध्ययने गाधा २ श्रीसमवसरणाध्ययनम् इस प्रकार कहनेवाले अज्ञानवादी मिथ्यादृष्टि हैं तथा वे सम्यग्ज्ञान से रहित हैं, वे भ्रम में पड़े हुए हैं। वे जो यह आक्षेप करते हैं कि "परस्पर विरुद्ध अर्थ बताने के कारण ज्ञानवादी सच्चे नहीं हैं" सो ठीक है, कारण यह है कि परस्पर विरुद्ध अर्थ बतानेवाले लोग असर्वज्ञ के आगमों को मानते हैं, इसलिए वे परस्पर विरुद्ध अर्थ बताते हैं परन्तु इससे समस्त सिद्धान्तों पर बाधा नहीं आती, क्योंकि सर्वज्ञप्रणीत आगम को माननेवाले वादियों के वाक्य में कहीं भी परस्पर विरोध नहीं आता है, कारण यह है कि इसके बिना सर्वज्ञता होती ही नहीं है । यही बताया जाता है- ज्ञान के ऊपर आया हुआ परदा सम्पूर्ण रूप से क्षय हो जाने से, तथा झूठ बोलने के कारण जो राग, द्वेष और मोह हैं, उनके अभाव हो जाने से सर्वज्ञ का वाक्य सत्य है, अतः तुम उसे अयथार्थ नहीं कह सकते, इसलिए सर्वज्ञ के बनाये हुए आगम को माननेवाले पुरुष परस्पर विरुद्ध अर्थ नहीं बताते, यह स्पष्ट है । (शङ्का) अब अज्ञानवादी शङ्का करता है कि- "यदि कोई सर्वज्ञ हो तो यह बात हो सकती है परन्तु कोई सर्वज्ञ है, यह जानना संभव नहीं है, यह पहले कहा जा चुका है" कहा (उत्तर) इसका समाधान यह है- यद्यपि तुमने यह बात कही है परन्तु अयुक्त कही है, देखो - तुमने जो कि "सर्वज्ञ विद्यमान हो तो भी वह अल्पज्ञ जीव के द्वारा जाना नहीं जाता है" यह तुम्हारा कथन अयुक्त है । यद्यपि दूसरे की चित्तवृति जानी नहीं जाती और सरागपुरुष वीतराग की तरह चेष्टा करते हुए तथा वीतराग सराग की तरह प्रवृत्ति करते हुए देखे जाते हैं, इसलिए प्रत्यक्ष से सर्वज्ञ की उपलब्धि नहीं होती तथापि सम्भव और अनुमान प्रमाण होने से और बाधक प्रमाण न होने से सर्वज्ञ का अस्तित्व मिट नहीं सकता । संभव और अनुमान ये हैं- व्याकरण आदि शास्त्रों के अभ्यास से संस्कारवाली बुद्धि का अतिशय जानने योग्य पदार्थों में देखा जाता है, इसलिए जैसे अज्ञानी की अपेक्षा वैयाकरण या पढ़ा हुआ मनुष्य ज्यादा समझता है, इसी तरह विशेष - विशेष अभ्यास से ( ध्यान वगैरह करने से ज्ञान की वृद्धि होने के कारण) सब वस्तु को जाननेवाला कोई सर्वज्ञ भी हो सकता है । वह सर्वज्ञ नहीं हो सकता है, ऐसा सर्वज्ञता का बाधक कोई प्रमाण नहीं है, क्योंकि - कोई अल्पज्ञ पुरुष प्रत्यक्ष प्रमाण से सर्वज्ञ का अभाव साबित करने में समर्थ नहीं है, क्योंकि उसका ज्ञान, अल्प होने से वह सर्वज्ञ के ज्ञान और ज्ञेय के विज्ञान से रहित है। यदि उसका ज्ञान सर्वज्ञ के ज्ञान और ज्ञेय को भी जानता है तो वह स्वयं सर्वज्ञ हुआ फिर सर्वज्ञ का अभाव कहाँ रहा ? । एवं अनुमान प्रमाण से भी सर्वज्ञ का निषेध नहीं हो सकता, क्योंकि सर्वज्ञ का अभाव के साथ व्यभिचार नहीं रखनेवाला कोई हेतु नहीं है । तथा उपमान प्रमाण से भी सर्वज्ञ का अभाव सिद्ध नहीं किया जा सकता, क्योंकि सादृश्य को लेकर उपमान प्रमाण की प्रवृत्ति होती है परन्तु सर्वज्ञ का अभाव के साथ किसी का सादृश्य नहीं है, अतः उपमान प्रमाण से सर्वज्ञ का अभाव सिद्ध नहीं हो सकता । एवं अर्थापत्ति प्रमाण से भी सर्वज्ञ का अभाव सिद्ध नहीं हो सकता है, क्योंकि अर्थापत्ति प्रमाण की प्रत्यक्षादिपूर्वक ही प्रवृत्ति होती है, इसलिए प्रत्यक्षादि प्रमाणों के द्वारा सर्वज्ञ के अभाव की सिद्धि न होने से अर्थापत्ति के द्वारा भी सर्वज्ञ का अभाव सिद्ध नहीं हो सकता । तथा आगम प्रमाण से भी सर्वज्ञ का अभाव नहीं सिद्ध हो सकता, क्योंकि आगम सर्वज्ञ का अस्तित्व बतलानेवाला भी है। यदि कहो कि "प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, अर्थापत्ति और सम्भव इन पाँच प्रमाणों के द्वारा सर्वज्ञ की सिद्धि नहीं होती है इसलिए यह निश्चित होता है कि कोई सर्वज्ञ नहीं है" तो यह ठीक नहीं है क्योंकि- सब देश और सब काल में सर्वज्ञ का बोधक कोई प्रमाण नहीं मिलता, यह अल्पज्ञ पुरुष कह नहीं सकता क्योंकि देश और काल की अपेक्षा से जो पुरुष अत्यन्त दूर हैं, उनका विज्ञान अल्पज्ञ पुरुष जान नहीं सकता । यदि वह जाने तब तो वह स्वयं सर्वज्ञ ठहरता है फिर कोई सर्वज्ञ नहीं है, यह कह नहीं सकता । स्थूलदर्शी पुरुष का विज्ञान सर्वज्ञ तक पहुँचता नहीं है, इस कारण भी सर्वज्ञ का अभाव कहा नहीं जा सकता, क्योंकि स्थूलदर्शी पुरुष का ज्ञान व्यापक नहीं है । यदि कोई अव्यापक पदार्थ किसी पदार्थ के पास न पहुँचे तो उस पदार्थ का अभाव नहीं होता। (अल्पज्ञ पुरुष का ज्ञान सब जगह पहुँच नहीं पाता इसलिए उसके द्वारा सर्वज्ञ के ज्ञान न होने से सर्वज्ञ का अस्तित्व मिट नहीं सकता ) यदि कहो कि जिस ज्ञान से दूसरे पदार्थ जाने जाते है, उससे सर्वज्ञ जाना नहीं जाता है, इसलिए सर्वज्ञ नहीं है, यह सिद्ध होता है, तो यह ठीक नहीं है क्योंकि जिस ज्ञान से दूसरे पदार्थ जाने जाते हैं, उसी ज्ञान से सर्वज्ञ भी जानाजाना चाहिए, यह कोई नियम नहीं है । अतः सर्वज्ञ के अस्तित्व का बाधक कोई प्रमाण नही मिलता और उसके ५०८
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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