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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते द्वादशमध्ययने गाधा १
श्रीसमवसरणाध्ययनम् मात्र काल आदि एक-एक को ही कारण मानते हैं, इसलिए मिथ्यादृष्टि हैं। यदि "अस्त्येव जीवः" जीव ही है, यह माना जाय तो इसका अर्थ यह है कि जो-जो है, वह सब जीव है, परन्तु ऐसा मानने से अजीव पदार्थ सर्वथा न रहेगा, अतः अवधारण पक्ष को छोड़कर (एकान्तवाद को छोड़कर) निरवधारण पक्ष मानने से (अनेकान्त मानने से) यहां क्रियावादी मत को सम्यक् कहा है । तथा परस्पर मिलकर एक दूसरे की अपेक्षा से काल आदि को कारण मानने से इस मत को सम्यक् कहा है।
(शङ्का) काल आदि एक दूसरे से निरपेक्ष रहें तो वे प्रत्येक यदि मिथ्या स्वभाव वाले हैं तो वे एकट्ठा जोड़नेपर सम्यक् कैसे हो सकते हैं ? क्योंकि- जो धर्म प्रत्येक में नहीं होता है, वह उन वस्तुओं के मिलने पर भी नहीं होता है जैसे रेती के एक कण में तेल नहीं होता, इसलिए हजारों रेती के कणों के मिलने पर भी तेल नहीं होता ।
(समाधान) यह दृष्टान्त ठीक नहीं हैं, क्योंकि- एक माणिक है, दूसरा हीरा है, और तीसरा पन्ना है, इन अनेक जूदा-जूदा रत्नों को रत्नावली (रत्न का हार) नहीं कहते हैं परन्तु इन रत्नों को एक सूत्र में गूंथ देने पर
समूह को रत्नावली (रत्न का हार) कहते हैं, यह प्रत्यक्ष देखा जाता है, इसलिए इस बात को तुम न मानो तो वह निष्फल है (अर्थात् तुम को मानना ही पड़ेगा) अतः एव कहा है कि- "कालो सहाव णियेई" अर्थात् काल, स्वभाव, नियति, जूदा - जूदा कारण मानना मिथ्यात्व है परन्तु इनके समूह को कारण मानना सम्यक्त्व
समस्त काल आदि एक साथ मिलकर ही सब कार्यों के साधक होते हैं. अतः जहां देखिए वहां इनके मिलने पर ही समस्त कार्य ठीक-ठीक होते हैं । (२) अकेले काल आदि से कोई कार्य नहीं होता है जैसे मूंग पकाने में आग, पानी, लकडी और तपेली आदि मिले हुए ही कारण हैं । (३) जैसे अनेक उत्तमोत्तम लक्षणों से युक्त वैडुर्य्यमणि आदि चाहे कितने ही मूल्यवान् हो परन्तु वे जूदा-जूदा रत्नावली (रत्न का हार) नहीं कहे जाते हैं (किन्तु एक सूत्र में गूंथे जाने पर ही कहे जाते हैं) (४) इसी तरह नियतिवाद आदि मत अपनी - अपनी न्याय की रीति से यद्यपि अपने-अपने पक्ष का समर्थन करते हैं तथापि दूसरे के साथ सम्बन्ध न रखने के कारण ये सभी मत सम्यक्त्व पद को प्राप्त नहीं करते, किन्तु मिथ्या कहे जाते हैं । (५) जैसे उन मणियों को एकसूत्र में गूंथ देने पर वे सभी जोड़े हुए जूदाई को त्याग देने से रत्नावली यानी रत्न का हार कहे जाते हैं । (६) इसी तरह पूर्वोक्त सभी नयवाद यथायोग्य वक्तव्य में जोड़े हुए एक साथ होने से सम्यक् शब्द को प्राप्त करते हैं परन्तु उनकी विशेष संज्ञा नही होती है । (७) अतः जो अपने पक्ष में कदाग्रह रखते हैं वे सभी नयवाद मिथ्यादृष्टि हैं परन्तु वे ही परस्पर सम्बन्ध रखने पर सम्यक् हो जाते हैं। (८) इसलिए नियुक्तिकार शिक्षा देते हैं कि- काल आदि प्रत्येक पदार्थ जूदा-जूदा कारण नहीं हैं, इसलिए जूदा-जूदा इनको कारण मानना मिथ्यात्व है, अत: मिथ्यात्व को छोड़कर इन सबको परस्पर की अपेक्षा से कारण मानना सम्यग्वाद है, इसे अङ्गीकार करो हमारा यह कथन प्रत्यक्ष और सत्य जानो ॥११९-१२१॥ नाम निक्षेप समाप्त हुआ अब सूत्रानुगम में अस्खलित आदि गुणों के साथ सूत्र का उच्चारण करना चाहिए वह सूत्र यह है -
चत्तारि समोसरणाणिमाणि, पावादुया जाई पुढो वयंति। किरियं अकिरियं विणियंति तइयं, अन्नाणमाहंसु चउत्थमेव
॥१॥ छाया - चत्वारि समवसरणानीमानि, प्रावादुकाः यानि पृथग्वदन्ति ।
क्रियामक्रियां विनयमिति तृतीयमज्ञानमाहुश्चतुर्थमेव ॥ अन्वयार्थ - (पावादुया) परतीर्थी (जाई) जिन्हें (पुढो वयंति) जूदा - जूदा बतलाते हैं (चत्तारि इमाणि समोसरणाणि) वे चार सिद्धान्त ये हैं (किरियं अकिरियं विणयं अन्नाणं चउत्थं) क्रियावाद, अक्रियावाद, विनयवाद और चौथा अज्ञानवाद ।
भावार्थ - अन्यदर्शनियों ने जिन सिद्धान्तों को एकान्त रूप से मान रखा है, वे सिद्धान्त ये हैं - क्रियावाद, अक्रियावाद, विनयवाद, और चौथा अज्ञानवाद ।
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