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________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते द्वादशमध्ययने प्रस्तावना श्रीसमवसरणाध्ययनम् अब इन मतवादियों का सम्यग् और मिथ्यात्व का विभाग जिस प्रकार हो. उसे नियुक्तिकार बताते हैं जिसकी दृष्टि-दर्शन यानी पदार्थ का ज्ञान सम्यग् है, उसे सम्यग्दृष्टि कहते हैं । वह सम्यग्दृष्टि कौन है सो बताते हैं- जो क्रिया को बताते हैं, अर्थात् जीव आदि का अस्तित्व कहते हैं, वे क्रियावादी हैं । ये क्रियावादी संसार का स्वरूप आदि मानते हैं, यह " अत्थित्ति किरियावादी" इस गाथा के द्वारा कहा गया है, उसका अनुवाद करके निरवधारण रूप से सम्यग्दृष्टित्व का विधान करते हैं, क्योंकि यह बात असिद्ध है ।1 जैसे कि- लोक और अलोक का विभाग विद्यमान है, आत्मा विद्यमान है, पुण्य, पाप का विभाग विद्यमान है तथा उसका फल स्वर्ग और नरक की प्राप्ति विद्यमान है एवं समस्त जगत् का कारण काल विद्यमान है क्योंकि काल पाकर वस्तु की उत्पत्ति, वृद्धि, स्थिति और विनाश होता है तथा काल से ही शीत, उष्ण, वर्षा और वनस्पतियों में फूल-फल लगते हैं, इसीलिए कहा है कि काल ही भूतों को पकाता इत्यादि । तथा स्वभाव भी समस्त जगत् का कारण रूप से विद्यमान है क्योंकि वह वस्तु का अपना धर्म है, उस धर्म के कारण ही जीव, अजीव, भव्यत्व, अभव्यत्व, मूर्त्तत्व और अमूर्त्तत्व अपने-अपने स्वरूप में स्थित रहते हैं तथा उस स्वभाव के ही वश धर्म, अधर्म, आकाश और काल आदि क्रमशः गति, स्थिति, अवगाह, परत्व, और अपरत्व आदि स्वरूप में रहते हैं अत एव कहा है कि कौन कण्टक की नोख पतली बनाता है ? इत्यादि । तथा नियति भी कारणरूप से विद्यमान हैं क्योंकि उस नियति के कारण ही पदार्थ नियमानुसार अपना अपना कार्य करते हैं । अत एव कहा है कि“प्राप्तव्यो” इत्यादि अर्थात् नियति के प्रभाव से पदार्थ की प्राप्ति होती है इत्यादि । तथा पहले किये हुए शुभ और अशुभ कर्म का भला और बुरा फल होता है इसलिए वह भी कारण है, अत एव कहा है कि- "यथा यथा" इत्यादि । अर्थात् पहले किये कर्म का फल भण्डार में रखे हुए के समान जैसे-जैसे जीवों के आगे उपस्थित होता है, उस-उस तरह पूर्वकृत कर्म के अनुसार चलनेवाली बुद्धि मानो हाथ में दीपक लेकर आगे आगे चलती है । १. प्राणी अपने-अपने कर्म को लेकर उत्पन्न होते हैं इसलिए वे जिधर नहीं जाना चाहते हैं उधर भी उस कर्म के द्वारा खींच कर भेज दिये जाते हैं । २. तथा पुरुषकार यानी पुरुषों का उद्योग भी कारण है क्योंकि उद्योग के बिना कुछ भी कार्य नहीं होता है । अत एव कहा है कि- दैव को सोचकर अपना उद्योग न छोड़ना चाहिए क्योंकि - उद्योग किये बिना तिल में से कौन तेल निकाल सकता है ? (१) तथा कोई उद्योगी कहता है कि - सुन्दर अङ्गवाली ! मनुष्य उद्योग से ही कल्याण देखता है तथा कृमि और कीड़े भी उद्योग से बड़े-बड़े वृक्षों को काट देते हैं (२) इस प्रकार काल आदि समस्त पदार्थो को कारण माननेवाले तथा आत्मा, पुण्य, पाप और परलोक आदि को स्वीकार करनेवाले क्रियावादी को सम्यग्दृष्टि जानना चाहिए । तथा शेष जो अक्रियावाद, अज्ञानवाद और विनयवाद हैं, उन्हें मिथ्यादृष्टि जानना चाहिए । अक्रियावादी अत्यन्त नास्तिक है क्योंकि वह प्रत्यक्षसिद्ध जीव, और अजीव आदि पदार्थो को नहीं मानता है इसलिए वह मिथ्यादृष्टि है । तथा अज्ञानवादी तो पागल है क्योंकि हेय और उपादेय को दिखानेवाले मति आदि पाँच ज्ञान विद्यमान हैं तो भी वह अज्ञान को ही कल्याण का साधन बतलाता है फिर वह कैसे पागल नहीं है ? । तथा विनयवादी का सिद्धान्त भी सुनने योग्य नहीं है, क्योंकि सिद्धि, ज्ञान और क्रिया दोनों से प्राप्त होती है तथापि वह केवल विनय से सिद्धि की प्राप्ति बतलाता है । अत: विपरीत अर्थ बताने के कारण ये पूर्वोक्त वादी मिध्यादृष्टि हैं । (शंका) कहते हैं कि काल आदि पदार्थो को स्वीकार करनेवाले १८० भेदवाले क्रियावादियों को तुमने अनेक जगह मिथ्यादृष्टि कहा है फिर उन्हें यहां सम्यग्दृष्टि कैसे कहते हो ? (समाधान) उक्त क्रियावादी को मिथ्यादृष्टि कहने का कारण यह है कि वह जीव को सर्वथा सत् बताता है, वह उसे किसी प्रकार भी असत् नहीं कहता है । तथा कालवादी एकमात्र काल को ही समस्त जगत् का कारण बताता है एवं स्वभाववादी एकमात्र स्वभाव को तथा नियतिवादी केवल नियति को और प्रारब्धवादी केवल पूर्वकृत कर्म को और उद्योगवादी एकमात्र उद्योग को सबका कारण मानते हैं। ये लोग दूसरे की अपेक्षा न करके एक 1. क्रियावादी जीवादि पदार्थों को एकान्त रूप से विद्यमान होना बताते हैं परन्तु एकान्त रूप से ऐसा कहने के कारण वे मिथ्यादृष्टि हैं यदि इनका अनेकान्त रूप से अस्तित्व माना जाय तो यह सम्यक् है । यही यहां का आशय है । ५०३
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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