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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते द्वादशमध्ययने प्रस्तावना
श्रीसमवसरणाध्ययनम् "जीव आदि पदार्थ किसी तरह भी नहीं हैं "यह माननेवाले अक्रियावादियों के ८४ भेद अब बताये जाते हैं। वह इस प्रकार समझना चाहिए । जीव आदि सात पदार्थो को लिखकर उनके नीचे स्व चाहिए और उनके नीचे काल, यद्दिच्छा, नियति, स्वभाव, ईश्वर और आत्मा ये छ: पद रखने चाहिए । इनके भेदों को लाने का उपाय यह है - १. जीव स्वयं काल से नहीं है । २. जीव दूसरे से काल से नहीं है । ३. जीव यदिच्छा से स्वयं नहीं है । ४. जीव, यदिच्छा से पर से होता नहीं हैं । इसी तरह नियती, स्वभाव, ईश्वर और आत्मा के साथ जोड़ने से प्रत्येक के दो - दो भेद होकर कुल १२ भेद होते हैं, इस प्रकार जीव आदि सात पदार्थो के प्रत्येक के १२ भेद होने से कुल ८४ भेद होते हैं । अत एव कहा है कि - "काल" इत्यादि, अर्थात् काल, यदिच्छा, नियति, स्वभाव, ईश्वर, आत्मा इन छ: के साथ मिलाने से ८४ संख्या होती है । नास्तिकों के मत में स्वतः या परतः जीवादि पदार्थ नहीं हैं।
अब अज्ञानवादियों का भेद बताया जाता है - अज्ञानवादी अज्ञान से ही इष्ट अर्थ की सिद्धि बतलाते हैं और ज्ञान को वे निष्फल और बहुत दोषों से पूर्ण कहते हैं । इस प्रकार का सिद्धान्त माननेवाले अज्ञानवादियों के सतसठ ६७ भेद होते हैं, वे भेद इस उपाय से जानने चाहिए - जीव और अजीव आदि नव पदार्थो को क्रमशः लिखकर उनके नीचे ये सात भङ्ग रखने चाहिए - १. सत् २. असत् ३. सदसत् ४. अवक्तव्य ५. सदवक्तव्य ६. असदवक्तव्य ७. सदसदवक्तव्य । इसका कथन इस प्रकार करना चाहिए - १. जीव सत् है यह कौन जानता है? और यह जानने से भी क्या प्रयोजन है ? । २. जीव असत् है, यह कौन जानता है ? तथा यह जानने से भी क्या प्रयोजन है ? | ३. जीव, सदसत् है, यह कौन जानता है ? तथा यह जानने से भी क्या प्रयोजन है ? | ४. जीव अवक्तव्य है, यह कौन जानता है ? तथा यह जानने से भी क्या प्रयोजन है ? । ५. जीव सदवक्तव्य है, यह कौन जानता है ? तथा यह जानने से भी क्या प्रयोजन है ? । ६. जीव असदवक्तव्य है, यह कौन जानता है ? तथा यह जानने से भी क्या प्रयोजन है ? । ७. जीव सत् - असत् अवक्तव्य है, यह कौन जानता है ? तथा यह जानने से भी क्या प्रयोजन है ? । इसी तरह अजीव आदि में भी सात भङ्ग होते है, इसलिए सभी मिलकर ये तीरसठ ६३ होते हैं । तथा ये दूसरे चार भङ्ग हैं, जैसे कि सती (विद्यमान) पदार्थ की उत्पत्ति कौन जानता है और यह जानने से भी क्या लाभ है ? १. असती (अविद्यमान) पदार्थ की उत्पत्ति कौन जानता है और यह जानने से भी क्या लाभ है ? २. सदसती (कुछ विद्यमान और कुछ अविद्यमान) पदार्थ की उत्पत्ति कौन जानता है और जानने से भी क्या लाभ है ? ३. अवक्तव्य भाव की उत्पत्ति कौन जानता है और जानने से भी क्या लाभ है ? ४. इन चारों भेदों को पहले के ६३ भेदों में मिलाने से ६७ सतसठ संख्या होती है । पीछे के तीन भङ्ग, पदार्थ की उत्पत्ति होने पर उनके अवयवों की अपेक्षा से होते हैं, वे उत्पत्ति में संभव नहीं हैं इसलिए वे उत्पत्ति में नहीं कहे गये हैं । अत एव कहा है कि - "अज्ञानिक" अज्ञानवादियों के मत में जीव आदि नव पदार्थो के सात - सात भङ्ग होते है और भाव की उत्पत्ति के सत्, असत्, सदसत् और अवक्तव्य ये चार भेद होते हैं।
अब केवल विनय से परलोक की प्राप्ति माननेवाले विनयवादियों का भेद बताया जाता है - इनके ३२ भेद होते है, वे इस प्रकार जानने चाहिए । देवता, राजा, यति, ज्ञाति, वृद्ध, अधम, माता, पिता, इन आठ व्यक्तियों का मन, वचन, काय और दान के द्वारा चार प्रकार का विनय करना चाहिए । इस प्रकार ये आठ, चार - चार प्रकार के होते हैं, अतः ये कुल मिलकर ३२ बत्तीस प्रकार के हैं । अत एव कहा है कि "वैनयिकं" अर्थात् विनयवादियों का मत है कि - देवता, राजा, यति, ज्ञाति, वृद्ध, अधम और माता - पिता का मन, वचन, काय
और दान से विनय करना चाहिए । पूर्वोक्त क्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञानवादी और विनयवादियों के भेदों को जोड़ने से सब तीन सौ तीरसठ ३६३ भेद होते हैं।
इस प्रकार नियुक्तिकार इन प्रावादुकों के मतभेद की संख्या बताकर अब उनके मतों का अध्ययन करने से क्या लाभ होता है ? यह बताते हैं - पूर्वोक्त मतवादियों ने अपनी इच्छानुसार जो सिद्धान्त माना है, उसे इस अध्ययन में गणधरों ने बताया है। किसलिए बताया है सो दिखाते हैं - उक्तमतवादियों के मत में जो परमार्थ है, उसका निर्णय करने के लिए गणधरों ने यह समवसरण अध्ययन बनाया है। समस्त वादियों के मत का निश्चय करने के लिए उनवादियों का इस अध्ययन में सम्मेलन किया गया है, इसलिए इस अध्ययन का नाम समवसरण रखा है।
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