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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते द्वादशमध्ययने प्रस्तावना
श्रीसमवसरणाध्ययनम् रूप से भी सत् होगा, ऐसी दशा में घट आदि के साथ जीव का कोई भेद नहीं रह सकता है) और ऐसा होने से जगत् के समस्त पदार्थ एक हो जायेंगे, उनमें कोई भेद न होने से अनेक प्रकार का जगत् हो नहीं सकता परन्तु ऐसा देखा नहीं जाता है और यह इष्ट भी नहीं है, इसलिए यह मत ठीक नहीं है । तथा जीवादि पदार्थ सर्वथा नहीं है, यह जो कहते हैं, वे अक्रियावादी कहे जाते हैं । ये भी मिथ्या अर्थ कहने के कारण मिथ्यादृष्टि ही है। यदि एकान्त रूप से जीव का प्रतिषेध किया जाय तो कोई कर्ता न होने से "जीव नही हैं। यह प्रतिषेध भी नहीं किया जा सकता और "जीव नहीं है। इस प्रतिषेध के न होने से जीवादि सभी पदार्थो का अस्तित्व सिद्ध हो जाता है । ज्ञान के अभाव को अज्ञान कहते हैं, वह जिसमें विद्यमान है, उसे अज्ञानी कहते हैं । अज्ञानी कहते हैं कि - अज्ञान ही कल्याण का मार्ग है । ये भी मिथ्यादृष्टि ही हैं, क्योंकि ज्ञान के बिना "अज्ञान ही श्रेष्ठ है" यह भी नहीं कहा जा सकता परन्तु वे लोग ऐसा कहते हैं, इसलिए अज्ञानवादियों ने अवश्य ज्ञान को स्वीकार
था जो केवल विनय से ही स्वर्ग और मोक्ष पाने की इच्छा करते हैं, वे भी मिथ्यादृष्टि हैं क्योंकिज्ञान और क्रिया के बिना मोक्ष नहीं होता । इन क्रियावादी आदि का स्वरूप बताकर उसका खण्डन आचाराङ्ग सत्र की टीका में विस्तार के साथ किया है, इसलिए यहां नहीं कहा जाता ॥११७-११८॥
अब इन मिथ्यादृष्टियों की भेदसंख्या बताने के लिए नियुक्तिकार कहते हैं -
क्रियावादियों के १८० भेद हैं, वह इस रीति से समझना चाहिए - जीव आदि पदार्थो को क्रमशः स्थापन करके उनके नीचे "स्वतः और परतः" ये दो भेद रखने चाहिए और उनके नीचे भी नित्य और अनित्य दो भेद स्थापन करने चाहिए । उसके नीचे भी क्रमशः काल, स्वभाव, नियति, ईश्वर और आत्मा ये पांच पद स्थापन करने चाहिए। इसके पश्चात् इनका संचार इस प्रकार करना चाहिए, जैसे कि - १. जीव अपने आप विद्यमान है २. जीव दूसरे से उत्पन्न होता है ३. जीव नित्य है ४. जीव अनित्य है । इन चारों भेदों को काल आदि के साथ लेने से २० भेद होते हैं। जैसे कि - १. जीव काल से है अर्थात् वह काल पाकर होता है । २. जीव कालपाकर दूसरे से या अपने से होता है । ३. जीव चेतन गुण से सदा नित्य है। ४. जीव की बुद्धि, काल पाकर घटती बढती रहती है, इसलिए वह अनित्य है । ५. जीव स्वभाव से है । ६. जीव स्वभाव से रहता हुआ अपने से अथवा दूसरे से प्रकट होता है । ७. जीव स्वभाव से स्वयं कायम रहने के कारण नित्य है । ८. जीव स्वभाव से मृत्यु को प्राप्त होने से अनित्य है। इसी तरह नियति के विषय में जानना चाहिए । नियति का अर्थ यह है कि - जो होनहार होता है, वही होता है । ९. जीव होनेवाला होता है तो हजारों उत्पन्न होकर स्वयं होता है । १०. जीव होनेवाला होता है तो दूसरे कारणों के मिलने से उत्पन्न होता है । ११. जीव होनेवाला होता है तो उत्पन्न होकर सदा कायम रहता है । १२. जीव होनहार होता है तो उत्पन्न होकर मरता है, इसलिए अनित्य है । १३. जीव ईश्वर से उत्पन्न होता है । १४. जीव ईश्वर से किया हुआ अपने निमित्तों से उत्पन्न होता है । १५. जीव ईश्वर से किया हुआ नित्य है । १६. जीव ईश्वर से किया हुआ अनित्य है । १७. जीव अपने रूप में स्वयं उत्पन्न होता है । १८. जीव अपने रूप में दूसरे से उत्पन्न होता है । १९. जीव अपने रूप से नित्य है । २०. जीव अपने रूप से अनित्य है । इस प्रकार जीव के विषय में २० भङ्ग होते हैं, इसी तरह अजीव आदि आठ पदार्थों में भी प्रत्येक में बीस-बीस भङ्ग होते हैं इसलिए नव बीस मिलकर क्रियावादियों की १८० संख्या होती है। 1. काल लोक में प्रसिद्ध है क्योंकि ऋतु में ही फल पैदा होता है । माली चाहे सौगुना सीचे परन्तु ऋतु आने पर ही फल उत्पन्न होता है, इसलिए
वस्तु मात्र का कारण काल है। (स्वभाव) वस्तु के गुण को स्वभाव कहते हैं, जैसे मिर्च तीखी, गुड मीठा और नीम कड़वी होती है (नियति) भवितव्यता - अर्थात् जो बात बननेवाली होती है, वही बनती है, हजारों उपाय करने पर भी अन्त में मृत्यु आती ही है, उस समय वैद्य आदि सभी बेकार हो जाते है। (ईश्वर) लोक में ऐसी मान्यता है कि यह सृष्टि स्वयं नहीं होती किन्तु लोक में एक ऐसा समर्थ पुरुष है कि जब उसकी इच्छा होती है तब वह सृष्टि उत्पन्न करता है और वह जब तक इच्छा होती है तब तक इस सृष्टि का पालन करता है और पीछे प्रलय करता है । जैसे मदारी खेल करता है, इसी तरह ईश्वर का यह खेल है । (आत्मा) कितने लोग ईश्वर की सत्ता न मानकर आत्मा स्वयं समर्थ होकर इस सृष्टि को रचता है, यह कहते हैं। इसमें समझने की बात यही है कि - इन सभी मतवालों की बात किसी अंश में ठीक है परन्तु एकान्त रूप से आग्रह करने के कारण ये मिथ्यादृष्टि और झूठे हैं । यदि अपेक्षा से कहा जाय तो सब मिलाकर सत्य हो सकता है । इति।
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