SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 213
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीमार्गाध्ययनम् भावार्थ - आश्रवद्वारों का निरोध किया हुआ महा बुद्धिमान्, धीर, वह साधु दूसरे से दिया हुआ ही आहार आदि ग्रहण करे । तथा शान्त रहकर मरणकाल की इच्छा करे, यही केवली का मत है । सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते एकादशमध्ययने गाथा ३८ है । टीका स साधुः एवं संवृताश्रवद्वारतया संवरसंवृतो महती प्रज्ञा यस्यासौ महाप्रज्ञः - सम्यग्दर्शनज्ञानवान्, तथा धी: - बुद्धिस्तया राजत इति धीरः परीषहोपसर्गाक्षोभ्यो वा स एवंभूतः सन् परेण दत्ते सत्याहारादिके एषणां चरेत्त्रिविधयाप्येषणया युक्तः सन् संयममनुपालयेत्, तथा निर्वृत इव निर्वृतः कषायोपशमाच्छीतीभूतः "कालं" मृत्युकालं यावदभिकाङ्क्षत् "एतत्" यत् मया प्राक् प्रतिपादितं तत् "केवलिनः " सर्वज्ञस्य तीर्थकृतो मतं । एतच्च जम्बूस्वामिनमुद्दिश्य सुधर्मस्वाम्याह । तदेतद्यत्त्वया मार्गस्वरुपं प्रश्नितं तन्मया न स्वमनीषिकया कथितं, किं तर्हि ?, केवलिनो मतमेतदित्येवं भवता ग्राह्यं । इतिः परिसमाप्त्यर्थे, ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ ३८ ॥ ॥ इति मार्गाख्यमेकादशमध्ययनं समाप्तम् ॥ टीकार्थ इस प्रकार आश्रवद्वारों को रोककर संवरयुक्त, सम्यग्दर्शन और ज्ञान से सम्पन्न, बुद्धि से शोभा पानेवाला अथवा परीषह और उपसर्गो से न घबरानेवाला वह साधु दूसरे के द्वारा दिया हुआ ही आहार ग्रहण करे। वह तीनों प्रकार की एषणाओं से युक्त होकर संयम का पालन करे । एवं कषायों के शान्त हो जाने से मुक्त पुरुष की तरह शान्त वह मुनि, मृत्युकाल की इच्छा करे । यह जो मैंने पहले कहा है, यही केवली का मत है । यह श्री सुधर्मास्वामी जम्बूस्वामी से कहते हैं कि आपने जो मेरे से मार्ग का स्वरूप पूछा था, उसका उत्तर मैंनें अपने मन से नहीं दिया किन्तु केवली का मत कहा है, यह तुम जानना । इति शब्द समाप्ति अर्थ में है ब्रवीमि पूर्ववत् है ॥ ३८ यह मार्गनामक ग्यारहवाँ अध्ययन समाप्त हुआ । - - ४९५
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy