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सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते एकादशमध्ययने गाथा ३७-३८
प्रतिपन्नभावमार्गेण च यद्विधेयं तद्दर्शयितुमाह
भावमार्ग को स्वीकार किये हुए साधु का कर्त्तव्य बताने के लिए शास्त्रकार कहते हैं : अह णं वयमावन्नं, फासा उच्चावया फुसे ।
ण तेसु विणिहणेज्जा, वारण व महागिरी
॥३७॥
छाया - अथ वै व्रतमापनं स्पर्शा उच्चावचाः स्पृशेयुः । न तेषु विनिहन्याद् वातेनेव महागिरिः ॥ अन्वयार्थ - ( अह) इसके पश्चात् ( वयमावन्नं) व्रतग्रहण किये हुए साधु को ( उच्चावया फासा फुसे) नाना प्रकार के परीषह और उपसर्ग स्पर्श करें (तेसु ण विणिहण्णज्जा) तो साधु उनसे डिगे नहीं । (वाएण व महागिरी) जैसे वायु से महान् पर्वत नहीं डिगता है ।
भावार्थ - व्रत ग्रहण किये हुए साधु को यदि नाना प्रकार के परीषह और उपसर्ग स्पर्श करें तो साधु अपने संयम से विचलित न हो जैसे पवन से महान् पर्वत डिगता नहीं है ।
टीका - "अथ" भावमार्गप्रतिपत्त्यनन्तरं साधुं प्रतिपन्नव्रतं सन्तं स्पर्शाः • परीषहोपसर्गरूपा: "उच्चावचा" गुरुलघवो नानारूपा वा "स्पृशेयुः " अभिद्रवेयुः, स च साधुस्तैरभिद्रुतः संसारस्वभावमपेक्षमाणः कर्मनिर्जरां च न तैरनुकूलप्रतिकूलैर्विहन्यात्, नैव संयमानुष्ठानान्मनागपि विचलेत्, किमिव ?, महावातेनेव महागिरिः मेरुरिति । परीषहोपसर्गजयश्चाभ्यासक्रमेण विधेयः, अभ्यासवशेन हि दुष्करमपि सुकरं भवति, अत्र च दृष्टान्तः, तद्यथाकश्चिद्गोपस्तदहर्जातं तर्णकमुत्क्षिप्य गवान्तिकं नयत्यानयति च ततोऽसावनेनैव च क्रमेण प्रत्यहं प्रवर्द्धमानमपि वत्समुत्क्षिपन्नभ्यासवशाद्विहायनं त्रिहायणमप्युत्क्षिपति, एवं साधुरप्यभ्यासात् शनैः शनैः परिषहोपसर्गजयं विधत्त
॥३७॥
श्रीमार्गाध्ययनम्
टीकार्थ भावमार्ग स्वीकार करने के पश्चात् व्रतधारी साधु को नाना प्रकार के छोटे और बड़े परीषह तथा उपसर्गो की बाधा हो तो वह संसार का स्वभाव और कर्म की निर्जरा का विचार कर सहन करे । वह अनुकूल और प्रतिकूल उपसर्गो के द्वारा संयम के अनुष्ठान से थोड़ा भी विचलित न हो, किसके समान ? जैसे महान् वायु से मेरु पर्वत विचलित नहीं होता है । साधु क्रमशः अभ्यास करके परीषह और उपसर्गो को जीते क्योंकि दुष्कर
कार्य भी अभ्यास से सुकर हो जाता है। इस विषय में यह द्रष्टान्त है कोई गोप (ग्वाला) उसी दिन जन्मे हुए गाय के बच्चे को अपने हाथों से उठाकर गाय के पास ले जाता है और फिर आता है । इसी तरह वह
रोज
रोज उस बछड़े को यदि गाय के पास हाथों से ले जाने और ले आने का अभ्यास बराबर जारी रखता है तो दो वर्ष तथा तीन वर्ष का होने पर भी उस बछड़े को वह ऊपर उठा लेता है, इसी तरह साधु भी अभ्यास करता हुआ धीरे धीरे परीषह और उपसर्गों को जीत लेता है ||३७||
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साम्प्रतमध्ययनार्थमुपसंजिहीर्षुरुक्तशेषमधिकृत्याह
अब शास्त्रकार इस अध्ययन को समाप्त करने के लिए शेष बात बताते हैं
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संवुडे से महापन्ने, धीरे दत्तेसणं चरे ।
निव्वुडे कालमाकंखी, एवं (यं) केवलिणो मयं
॥३८॥
त्ति बेमि ।। इति मोक्षमार्गनामकं एकादशमध्ययनं समाप्तम् (गाथाग्रम् - ५४६ )
छाया - संवृतः स महाप्राज्ञः, धीरो दत्तैषणां चरेत् । निर्वृतः कालमाकाङ्क्षेदेवं केवलिनो मतम् ॥
अन्वयार्थ - (संवुडे महापन्ने धीरे से) आश्रवद्वारों को निरोध किया हुआ महाबुद्धिमान् धीर वह साधु (दत्तेसणं चरे) दूसरे से दिया हुआ एषणीय आहार ही ग्रहण करे ( निव्वुडे कालमाकंखी) तथा शान्त रहकर काल की इच्छा करे । (एयं केवलिणो मयं) यही केवली का त