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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते एकादशमध्ययने गाथा ३३-३४
श्रीमार्गाध्ययनम् टीकार्थ - इदम् शब्द प्रत्यक्ष और निकटवर्ती वस्तु का वाचक है, इसलिए जिसका स्वरूप आगे चलकर कहा जायगा तथा जो सब लोक में प्रसिद्ध है एवं जो जीव को दुर्गति से रोककर शुभ गति में ले जाता है, वह श्रुत और चारित्ररूप धर्म (सब धर्मो में श्रेष्ठ है) च शब्द पुनः शब्द के अर्थ में आया है, वह पूर्वोक्त शाक्य धर्म से श्रुत और चारित्र धर्म की विशिष्टता बताता है । बुद्ध के कहे हुए धर्म को माननेवाले महाभय को प्राप्त होते हैं परन्तु काश्यपगोत्री भगवान् महावीर स्वामी के कहे हुए इस धर्म को स्वीकार करके भावस्रोत रूप संसार सागर से जीव तर जाता है, इसलिए यह धर्म सब से श्रेष्ठ है। अब संसार का विशेषण बताते हैं - वह संसार महाभय देनेवाला है क्योंकि उसको पार करना कठिन है । संसार में रहनेवाले प्राणी एक गर्भ से दूसरे गर्भ में तथा एक जन्म से दूसरे जन्म में एवं एक मरण से दूसरे मरण में तथा एक दुःख से दूसरे दुःख में जाते हुए अरहट यन्त्र की तरह अनन्तकाल तक संसार में ही फिरते रहते है, अतः इस संसार सागर से अपनी रक्षा पाने के लिए
को वर्धमान स्वामी के उपदेश किये हुए धर्म को स्वीकार कर संयम का अनुष्ठान करना चाहिए। कहींकहीं उत्तरार्ध का पाठ इस प्रकार मिलता है कि -"कुज्जा भिक्खू गिलाणस्स अगिलाए समाहिए" अर्थात् साधु रोगी साधु का वैयावच्च परिश्रम रहित तथा प्रसन्नचित्त होकर करे अथवा वह रोगी साधु को समाधि उत्पन्न करे ॥३२॥
- कथं संयमानुष्ठाने परिव्रजेदित्याह -
- साधु संयम का पालन किस प्रकार करे सो शास्त्रकार दिखाते हैं - विरए गामधम्मेहि,जे केई जगई जगा । तेसिं अत्तुवमायाए, थामं कुव्वं परिव्वए।।३३।।
छाया - विरतोग्रामधर्मेभ्यः, ये केचिद् जगति नगाः । तेषामात्मोपमया, स्थामं कुर्वन् परिव्रजेत् ॥
अन्वयार्थ - (गामधम्मेहिं विरए) साधु शब्दादि विषयों से निवृत्त होकर (जगई जे केई जगा) जगत् में जो कोई प्राणी है (तेसिं अत्तुवमायाए) उनको अपने समान समझता हुआ (थाम कुव्वं परिव्वए) बल के साथ संयम का पालन करे ।
भावार्थ - साधु शब्दादि विषयों को त्यागकर संसार के प्राणियों को अपने समान समझता हुआ बल के साथ संयम का पालन करे।
टीका - ग्रामधर्माः - शब्दादयो विषयास्तेभ्यो विरता मनोज्ञेतरेष्वरक्तद्विष्टाः सन्त्येके केचन "जगति" पृथिव्यां संसारोदरे "जगा" इति जन्तवो जीवितार्थिनस्तेषां दुःखद्विषामात्मोपमया दुःखमनुत्पादयन् तद्रक्षणे सामर्थ्य कुर्यात् तत् कुर्वश्च संयमानुष्ठाने परिव्रजेदिति ॥३३॥
टीकार्थ - शब्द आदि विषयों को ग्रामधर्म कहते हैं, उनसे साधु निवृत्त हो जाय अर्थात् वह मनोज्ञ शब्दादि में राग तथा अमनोज्ञ में द्वेष न करे । तथा संसार में रहनेवाले जो प्राणी हैं, वे सभी जीने की इच्छा करते हैं
और दःख से द्वेष करते हैं, अतः उन प्राणियों को अपने समान समझकर साधु उनको दुःख न देवे किन्तु उनकी रक्षा के लिए पराक्रम करता हुआ संयम का अनुष्ठान करे ॥३३॥
- संयमविघ्नकारिणामपनयनार्थमाह- जो दोष संयम पालन करने में विघ्न उपस्थित करते हैं, उनको हटाने के लिए शास्त्रकार उपदेश करते
अइमाणं च मायं च, तं परिन्नाय पंडिए । सव्वमेयं णिराकिच्चा, णिव्वाणं संधए मुणी
॥३४॥
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