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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते एकादशमध्ययने गाथा ३५
श्रीमार्गाध्ययनम् छाया - अतिमान मायाच तत्परिज्ञाय पण्डितः । सर्वमेतविराकृत्य, निर्वाणं संधयेन्मुनिः ॥
अन्वयार्थ - (पंडिए मुणी) पण्डित मुनि (अइमाणं च मायं च तं परित्राय) अतिमान और माया को जानकर (एयं सव्वं णिराकिच्चा) तथा इनको त्याग कर (निव्वाणं संधए) निर्वाण यानी मोक्ष की खोज करे ।।
भावार्थ - विद्वान् साधु अतिमान और माया को जानकर तथा उन्हें त्यागकर मोक्ष का अनुसन्धान करे ।
टीका - अतीव मानोऽतिमानश्चारित्रमतिक्रम्य यो वर्तते चकारादेतद्देश्यः क्रोधोऽपि परिगृह्यते, एवमतिमायां, चशब्दादतिलोभं च, तमेवंभूतं कषायव्रातं संयमपरिपन्थिनं "पण्डितो" विवेकी परिज्ञाय सर्वमेनं संसारकारणभूतं कषायसमूहं निराकृत्य निर्वाणमनुसंधयेत्, सति च कषायकदम्बके न सम्यक् संयमः सफलतां प्रतिपद्यते, तदुक्तम् - 1"सामण्णमणुचरंतस्स, कसाया जस्स उक्कडा होति । मण्णामि उच्छुपुप्फ व, निष्फलं तस्स सामण्णं||१||"
तनिष्फलत्वे च न मोक्षसंभवः, तथा चोक्तम् - "संसारादपलायनप्रतिभुवो रागादयो मे स्थितास्तृष्णाबन्धनबध्यमानमखिलं किं वेल्सि नेदं जगत ? मृत्यो । मुच जराकरेण परुषं केशेषु मा मा ग्रहीरेहीत्यादरमन्तरेण भवतः किं नागमिष्याम्यहम् ||१||"
इत्यादि । तदेवमेवंभूतकषायपरित्यागादच्छिन्नप्रशस्तभावानुसंधनया निर्वाणानुसंधानमेव श्रेय इति ॥३४।। किञ्च
टीकार्थ - जो मान, चारित्र को नष्ट करता है, उसे अतिमान कहते हैं तथा च शब्द से इसी तरह का जो क्रोध है, उसका भी ग्रहण है तथा अतिमाया और च शब्द से अतिलोभ ये कषाय समह सं विद्वान् मुनि संसार के कारण स्वरूप इन कषायों को जानकर तथा इनको त्यागकर मोक्ष का साधन करे । कषाय बने रहनेपर संयम अच्छी तरह से नहीं पाला जा सकता है, अत एव कहा है कि
संयम पालन करते हए जिस पुरुष के कषाय प्रबल है, उसका साधुपन ईख के फूल की तरह निष्फल
अतः साधुपन के निष्फल होने पर मोक्ष होना संभव नहीं है, अत एव कहा है कि -
हे मृत्यो ! संसार से भागकर अन्यत्र न जाने देनेवाले राग आदि मेरे में विद्यमान हैं तथा समस्त जीव तृष्णारूपी बन्धन में बँधे हुए है, क्या तुम यह नहीं जानते हो ? अतः वृद्धतारूपी हाथ के द्वारा मेरे केशों को मत पकडो, इसे छोड़ दो। तुम जो मुझको अपने पास बुलाने के लिए आदर कर रहे हो, इसकी भी आवश्यकता नहीं है क्योंकि तुम्हारे इस आदर के बिना क्या मैं तुम्हारे पास न आऊंगा?
अतः साधु को कषाय छोड़कर प्रशस्त भाव के साथ मोक्ष का अन्वेषण करना चाहिए ॥३४॥
संधए साहुधम्मं च, पावधम्म णिराकरे । उवहाणवीरिए भिक्खू, कोहं माणं ण पत्थए
॥३५॥ छाया - सन्धयेत्साधु धर्मश, पापधर्म निराकुात् । उपधानवीर्यो भिक्षुः, क्रोथं मानश वर्जयेत् ॥
अन्वयार्थ - (भिक्खू साहुधमं च संधए) साधु क्षान्ति आदि धर्म की वृद्धि करे । (पावधम्म णिराकरे) तथा पाप धर्म का त्याग करे। (उवहाणवीरिए) साधु तप करने में अपना पराक्रम प्रकट करे (कोहं माणं ण पत्थए) तथा क्रोध और मान न करे ।
भावार्थ - साधु, क्षान्ति आदि धर्म की वृद्धि करे और पापमय धर्म का त्याग करे । एवं तप में अपना पराक्रम प्रकट करता हुआ क्रोध मान की प्रार्थना न करे ।
टीका - साधूनां धर्मः क्षान्त्यादिको दशविधः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राख्यो वा तम् "अनुसंधयेत्" वृद्धिमापादयेत्, तद्यथा - प्रतिक्षणमपूर्वज्ञानग्रहणेन ज्ञानं तथा शङ्कादिदोषपरिहारेण सम्यग्जीवादिपदार्थाधिगमेन च सम्यग्दर्शनम् अस्खलितमूलोत्तरगुणसंपूर्णपालनेन प्रत्यहमपूर्वाभिग्रहग्रहणेन (च) चारित्रं (च) वृद्धिमापादयेदिति, पाठान्तरं वा "सद्दहे साधुधम्मं च" पूर्वोक्तविशेषणविशिष्टं साधुधर्मं मोक्षमार्गत्वेन श्रद्दधीत - निःशङ्कतया गृह्णीयात्, चशब्दात्सम्यगनुपालयेच्च, 1. श्रामण्यमनुचरतः कषाया यस्योत्कटा भवन्ति । मन्ये इक्षुपुष्पमिव निष्फलं तस्य श्रामण्यं ।।१।।
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