SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 208
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते एकादशमध्ययने गाथा ३१-३२ श्रीमार्गाध्ययनम् दार्टान्तिकमाह - दृष्टान्त बताकर अब शास्त्रकार दार्टान्त बताते हैं - एवं तु समणा एगे, मिच्छद्दिट्टी अणारिया । सोयंकसिणमावन्ना, आगंतारो महब्भयं।।३१।। छाया - एवन्तु श्रमणा एके मिध्यादृष्टयोऽनााः । सोतः कृत्स्नमापला आगन्तारो महाभयम् ॥ अन्वयार्थ - (एवं तु मिच्छद्दिट्ठी अणारिया एगे समणा) इसी तरह मिथ्यादृष्टि कोई अनार्य श्रमण (कसिणं सोयं आवन्ना) पूर्णरूप से आश्रव का सेवन करते है (महब्मयं आगंतारो) अतः वे महाभय को प्राप्त करेंगे । भावार्थ - इसी तरह मिथ्यादृष्टि अनार्य कोई श्रमण पूर्णरूप से आश्रव का सेवन करते हैं, वे महान् भय को प्राप्त होंगे। ___टीका - एवमेव श्रमणा "एके" शाक्यादयो मिथ्यादृष्टयोऽनार्या भावस्रोतः - कर्माश्रवरूपं "कृत्स्नं" संपूर्णमापन्नाः सन्तस्ते "महाभयं" पौनःपुन्येन संसारपर्यटनया नारकादिस्वभावं दुःखम् "आगन्तारः" आगमनशीला भवन्ति, न तेषां संसारोदधेरास्राविणी नावं व्यवस्थितानामिवोत्तरणं भवतीति भावः ॥३१॥ टीकार्थ - जैसे जन्मान्ध पुरुष छिद्रवाली नावपर चढ़कर बीच में ही डूब जाता है, इसी तरह मिथ्यादृष्टि अनार्य, शाक्य आदि श्रमण, कर्मो के आस्रव रूप सम्पूर्ण भावस्रोत को प्राप्त होते है तथा वे बारबार संसार में पर्यटन करते हुए नरकादि दुःखों को प्राप्त करते हैं । जैसे छिद्रवाली नावपर बैठे हुए पुरुष बीच जल में डूब जाते हैं, इसी तरह वे शाक्य आदि संसार सागर में डूबते हैं ॥३१॥ - यतः शाक्यादयः श्रमणाः मिथ्यादृष्टयोऽनार्याः कृत्स्नं स्रोतः समापन्नाः महाभयमागन्तारो भवन्ति तत इदमुपदिश्यते - - मिथ्यादृष्टि, अनार्य, शाक्य आदि पूर्णरूप से संसार सागर को प्राप्त कर महान् दुःख प्राप्त करते हैं । अतः शास्त्रकार यह उपदेश देते हैं - इमं च धम्ममादाय, कासवेण पवेदितं । तरे सोयं महाघोरं, आत्तत्ताए परिव्वए ॥३२॥ छाया - इमश धर्ममादाय, काश्यपेन प्रवेदितम् । तरेत्सोतो महाघोरमात्मत्राणाय परिव्रजेत् ॥ अन्वयार्थ - (कासवेण पवेदित) काश्यपगोत्री भगवान् महावीर स्वामी से बताये हुए (इमं च धम्म आदाय) इस धर्म को प्राप्त करके (महाघोरं) महा-घोर (सोय) संसार सागर को (तरे) साधु पार करे (आत्तत्ताए परिव्वए) तथा आत्मरक्षा के लिए संयम का पालन करे। भावार्थ-काश्यपगोत्री भगवान महावीर स्वामी ने कहे हर इस धर्म को प्रास करके बुद्धिमान पुरुष महाघोर संसार सागर को पार करे तथा आत्मकल्याण के लिए संयम का पालन करे । टीका - "इम" मिति प्रत्यक्षासन्नवाचित्वादिदमोऽनन्तरं वक्ष्यमाणलक्षणं सर्वलोकप्रकटं च दुर्गतिनिषेधेन शोभनगतिधारणात् "धर्म" श्रुतचारित्राख्यं, चशब्दः पुनःशब्दार्थे, स च पूर्वस्माद्व्यतिरेकं दर्शयति, यस्माच्छौद्धोदनिप्रणीतधर्मस्यादातारो महाभयं गन्तारो भवन्ति, इमं पुनर्धर्मम् "आदाय" गृहीत्वा "काश्यपेन" श्रीवर्धमानस्वामिना "प्रवेदित" प्रणीतं "तरेत्" लङ्घयेद्भावस्रोतः संसारपर्यटनस्वभावं, तदेव विशिनष्टि - "महाघोरं" दुरुत्तरत्वान्महाभयानकं, तथाहि - तदन्तर्वर्तिनो जन्तवो गर्भाद्र्भ जन्मतो जन्म मरणान्मरणं दुःखावुःखमित्येवमरघट्टघटीन्यायेनानुभवन्तोऽनन्तमपि कालमासते । तदेवं काश्यपप्रणीतधर्मादानेन सता आत्मनस्त्राणं- नरकादिरक्षा तस्मै आत्मत्राणाय परि:समन्ता (व्रजे) त्परिव्रजेत्संयमानुष्ठायी भवेदित्यर्थः, क्वचित्पश्चार्धस्यान्यथा पाठः - "कुज्जा भिक्खू गिलाणस्स, अगिलाए समाहिए" "भिक्षुः" साधुः ग्लानस्य वैयावृत्यम् "अग्लानः" अपरिश्रान्तः कुर्यात्सम्यक्समाधिना ग्लानस्य वा समाधिमुत्पादयन्निति ॥३२॥ ४९०
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy