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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते एकादशमध्ययने गाथा २९-३० श्रीमार्गाध्ययनम् अब शास्त्रकार दार्टान्त बताते हैं। जैसे ढंक आदि पक्षी मच्छली ढूँढ ने रूप ध्यान ध्याते हैं और उस ध्यान को ध्याते हुए पापी और नीच होते हैं, इसी तरह शाक्य आदि कोई मिथ्यादृष्टि श्रमण अनार्य्य कर्म करने के कारण तथा सारम्भ और सपरिग्रह होने के कारण अनार्य हैं और वे सदा शब्दादि विषयों की प्राप्ति का ध्यान करते हैं । अतः वे कङ्क पक्षी की तरह पापी और अधम है ॥२८॥ सुद्धं मग्गं विराहित्ता, इहमेगे उ दुम्मती । उम्मग्गगता दुक्खं, घायमेसंति तं तहा।।२९।। छाया - शुद्धं मार्ग विराध्य, इहेके तु दुर्मतयः । उन्मार्गगताः दुःखं घातमेष्यन्ति, तत्तथा ॥ अन्वयार्थ - (इह) इस जगत् में (एगेउ दुम्मती) कोई दुर्मति पुरुष, (सुद्धं मग्ग) शुद्ध मार्ग को (विराहित्ता) दूषित करके (उम्मग्गगता) उन्मार्ग में प्रवृत्त होते हैं (दुक्खं घायं तं तहा एसंति) अतः वे दुःख और नाश की प्रार्थना करते हैं । भावार्थ - इस जगत् में शुद्ध मार्ग की विराधना करके उन्मार्ग में प्रवृत्त शाक्य आदि दुःख और नाश को प्राप्त करते हैं। टीका - 'शुद्धम्' अवदातं निर्दोषं 'मार्ग' सम्यग्दर्शनादिकं मोक्षमार्ग कुमार्गप्ररूपणया 'विराध्य' दूषयित्वा 'इह' अस्मिन्संसारे मोक्षमार्गप्ररूपणप्रस्तावे वा "एके" शाक्यादयः स्वदर्शनानुरागेण महामोहाकुलितान्तरात्मानो दुष्टा पापोपादानतया मतिर्येषां ते दुष्टमतयः सन्त उन्मार्गेण - संसारावतरणरूपेण गताः - प्रवृत्ता उन्मार्गगता दुःखयतीति दुःखम् - अष्टप्रकारं कर्मासातोदयरूपं वा तदुःखं घातं चान्तशस्ते तथा-सन्मार्गविराधनया उन्मार्गगमनं च "एषन्ते, अन्वेषयन्ति, दुःखमरणे शतशः प्रार्थयन्तीत्यर्थः ॥२९॥ टीकार्थ - दोषरहित जो सम्यग्दर्शन आदि मोक्षमार्ग है, उसकी शाक्य आदि, कुमार्ग की प्ररूपणा करके विराधना करते हैं । इस संसार में अथवा मोक्ष मार्ग के प्रसङ्ग में शाक्य आदिकों का हृदय अपने दर्शन के अनुराग के कारण महामोह से दूषित हो गया है एवं उनकी बुद्धि पाप का कारण हो गयी है, वे संसार में उतरनेवाले मार्ग से चलते है । अतः अच्छे मार्ग की विराधना करने के कारण वे अन्त में आठ प्रकार के कर्मों का बन्ध अथव असातावेदनीय को प्राप्त करते हैं। वे सैकडों बार दुःख और मरण की प्रार्थना करते हैं, यह भाव है ॥२९॥ - शाक्यादीनां चापायं दिदर्शयिषुस्तावदृष्टान्तमाह - - शाक्य आदि को भावी अहित बताने के लिए शास्त्रकार दृष्टान्त बताते हैं - जहा आसाविणिं नावं,जाइअंधो दुरूहिया । इच्छई पारमागंतुं, अंतरा य विसीयति॥३०॥ छाया - यथाऽऽमाविणी नावं, नात्यन्धो दुरुह्य । इच्छति पारमागन्तुमन्तरा च विषीदति ॥ अन्वयार्थ - (जहा) जैसे (जाइअंघो) जन्मान्ध पुरुष (आसाविणिं नाव) छिद्रवाली नाव पर (दुरुहिया) चढ़कर (पारमागंतुं इच्छई) नदी को पार करना चाहता है (अंतरा य विसीयति) परन्तु वह बीच में ही डूब जाता है। भावार्थ - जैसे जन्मान्ध पुरुष छिद्रवाली नाव पर चढ़कर नदी को पार करना चाहता है परन्तु वह मध्य में ही डूब जाता है। टीका - यथा जात्यन्ध "आस्राविणीं" शतच्छिद्रां नावमारुह्य पारमागन्तुमिच्छति, न चासौ सच्छिद्रतया पारगामी भवति, किं तर्हि ? अन्तराल एव - जलमध्ये एव विषीदति - निमज्जतीत्यर्थः ॥३०॥ टीकार्थ - जैसे जन्मान्ध पुरुष सैकड़ो छिद्रवाली नाव पर चढ़कर नदी से पार जाना चाहता है परन्तु नाव छिद्र युक्त होने के कारण वह पारगामी नहीं होता है किन्तु जल के मध्य में ही डूब जाता है ॥३०॥ ४८९
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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