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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते एकादशमध्ययने गाथा २७-२८ श्रीमार्गाध्ययनम् हैं - "मणुन्नं भोयणं भोच्चा" इत्यादि। अर्थात् मनोज्ञ भोजन खाने आदि से शुभध्यान होता है। तथा वे मांस का कल्किक नाम रखकर नाम बदल जाने से उसके खाने में दोष नहीं मानते हैं। एवं बुद्ध संघ के लिए किये जानेवाले आरम्भ को वे निर्दोष कहते हैं। अत एव कहा है कि - "मंस" अर्थात अज्ञानी शाक्य आदि मांस खाना त्यागकर भी उसका कल्किक नाम रखकर खाते हैं । एवं आरम्भ को छोड़कर संघ के नाम से पकवाकर स्वयं खाते हैं। परन्तु नाम बदलने से निर्दोषता नहीं हो सकती है, जैसे लूता यानी गर्मी के ऋतु में जो अत्यन्त ताप होता है, उसका शीतलिका (ठंडक) नाम रखने से उसके गुण में फर्क नहीं होता है । अथवा कोई विष का अमृत नाम रखकर व्यवहार करे तो वह मृत्यु से बचता नहीं है। इसी तरह उत्पत्ति और विनाश को आविर्भाव और तिरोभाव शब्द से कहने वाले कपिल मतवालों की भी अनिपुणता कहनी चाहिए । इस प्रकार मनोज्ञ तथा उद्दिष्ट आहार खाने वाले और परिग्रह रखने के कारण आतध्यान करनेवाले समाधिरहित बिचारे शाक्य आदि समाधिमार्ग से दूर रहते हैं ॥२६॥ - यथा चैते रससातागौरवतयाऽऽर्तध्यायिनो भवन्ति तथा दृष्टान्तद्वारेण दर्शयितुमाह - - पूर्वोक्त ये अन्यदर्शनी, स्वाद, सुख और अहङ्कार में आसक्त होकर जिस प्रकार आर्त ध्यान करते हैं, . वह दृष्टान्त के द्वारा बताने के लिए शास्त्रकार कहते हैं - जहा ढंका य कंका य, कुलला मग्गुका सिही। . मच्छेसणं झियायंति, झाणं ते कलुसाधर्म ॥२७॥ एवं तु समणा एगे, मिच्छद्दिट्ठी अणारिया । विसएसणं झियायंति, कंका वा कलुसाहमा ॥२८॥ छाया - यथा ढहाथ कढ़ाश्च, कुररा मद्गुकाः सिधाः । मत्स्येषणं ध्यायन्ति, ध्यानं तत् कलुषाधमम् ॥ एवं तु श्रमणा एके मिध्यादृष्टयोऽनााः । विषयेषणं ध्यायन्ति, ध्यानन्तत् कलुषाधमम् ॥ अन्वयार्थ - (जहा) जैसे (ढंका य कंका य कुलला मग्गुका सिही) ढंक, कंक, कुरर, जलमूर्गा और सिधीनामक जलचर पक्षी (मच्छेसणं कलुसाथमं झाणं झियायंति) मच्छली पकड़ने के बुरे विचार में रत रहते हैं (एवं तु) इसी तरह (मिच्छद्दिट्ठी) मिथ्यादृष्टि (अणारिया) अनार्य (एगे समणा) कोई श्रमण (विसएसणं झियायंति) विषय प्राप्ति का ध्यान करते हैं । (ते ढंका वा कलुसाहमा) वे ढंक पक्षी की तरह पापी और अधम भावार्थ - जैसे ढंक, कंक, कुरर, जलमूर्ग और शिखी नामक पक्षी जल में रहकर सदा मच्छली पकड़ने के ख्याल में रत रहते हैं, इसी तरह कोई मिथ्यादृष्टि अनार्य श्रमण सदा विषय प्राप्ति का ध्यान करते रहते हैं, वे वस्तुतः पापी और नीच हैं। टीका - यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः "यथा" येन प्रकारेण "ढङ्कादयः' पक्षिविशेषा जलाशयश्रया आमिषजीविनो मत्स्यप्राप्तिं ध्यायन्ति, एवंभूतं च ध्यानमार्तरौद्रध्यानरूपतयाऽत्यन्तकलुषमधमं च भवतीति ॥२७॥ टीका - दार्टान्तिकं दर्शयितुमाह - 'एव' मिति यथा ढङ्कादयो मत्स्यान्वेषणपरं ध्यानं ध्यायन्ति तद्धयायिनश्च कलुषाधमा भवन्ति, एवमेव मिथ्यादृष्टयः श्रमणा "एके" शाक्यादयोऽनार्यकर्मकारित्वात्सारम्भपरिग्रहतया अनार्याः सन्तो विषयाणां - शब्दादीनां प्राप्तिं ध्यायन्ति तद्धयायिनश्च कङ्का इव कलुषाधमा भवन्तीति ।।२८।। किञ्च - ___टीकार्थ - यथा शब्द उदाहरण बताने के लिए आया है - जैसे जल में रहने वाले मांसजीवी ढंक आदि पक्षी सदा मच्छली मिलने के ध्यान में लगे रहते हैं, वस्तुतः यह ध्यान आत और रौद्ररूप होने से अत्यन्त पापमय और नीच है ॥२७॥
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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