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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते एकादशमध्ययने गाथा २३-२४
श्रीमार्गाध्ययनम् टीकार्थ - जो परलोकार्थि पुरुष निर्वाण को उत्तम मानते है, वे श्रेष्ठ है । वे पुरुष निर्वाणवादि होने के कारण प्रधान है, यह बात दृष्टान्त के द्वारा दिखाते है- जैसे अश्विनी आदि नक्षत्रों में सुन्दरता, प्रमाण, और प्रकाश रूप गुणों के द्वारा चन्द्रमा प्रधान हैं, इसी तरह परलोकार्थी तत्त्वज्ञ पुरुषों में जो पुरुष स्वर्ग, चक्रवर्ती और सम्पति मिलने की इच्छा को त्यागकर समस्त कर्मो के क्षयरूप मोक्ष में प्रवृत्त हैं, वे ही प्रधान है, दूसरे नहीं । अथवा जैसे नक्षत्रों में चन्द्रमा प्रधान है, इसी तरह मोक्ष सबसे श्रेष्ठ है, यह तत्त्वज्ञ पुरुष कहते हैं । मोक्ष सबसे श्रेष्ठ है, इसलिए साधु सदा प्रयत्नशील और इन्द्रिय तथा मन को वश करके मोक्ष के लिए सब क्रियायें करे ॥२२॥
वुज्झमाणाण पाणाणं, किच्चंताण सकम्मुणा । आघाति साहु तं दीवं, पतिढेसा पवुच्चई
॥२३॥ छाया - उमानानां प्राणानां, कृत्यमानानां स्वकर्मणा । आख्याति साधु तद् द्वीपं, प्रतिष्ठेषा प्रोच्यते ॥
अन्वयार्थ - (वुज्झमाणाणं) मिथ्यात्व, कषाय आदिरूप धारा में बहे जाते हुए (सकम्मुणा किच्चंताणं) तथा अपने कर्म से कष्ट पाते हुए (पाणिणं) प्राणियों के लिए (साहु तं दीवं आघाति) उत्तम यह मार्गरूप द्वीप तीर्थकर आदि बताते हैं । (एसा पतिट्ठा पवुच्चई) यही मोक्ष का साधन है, यह विद्वान् कहते हैं।
भावार्थ- मिथ्यात्व, कषाय आदि तेज धारा में बहे जाते हुए तथा अपने कर्म के वशीभूत होकर कष्ट पाते हुए प्राणियों को विश्राम देने के लिए सम्यग्दर्शन आदि द्वीप तीर्थकरों ने बताया है। विद्वानों का कथन है कि - सम्यगदर्शन आदि के द्वारा मोक्ष की प्रासि होती है।
टीका - संसारसागरस्रोतोभिर्मिथ्यात्वकषायप्रमादादिकैः "उह्यमानानां" तदभिमुखं नीयमानानां तथा स्वकर्मोदयेन निकृत्यमानानामशरणानामसुमतां परहितैकरतोऽकारणवत्सलस्तीर्थकृदन्यो वा गणधराचार्यादिकस्तेषामाश्वासभूतं "साधुं" शोभनं द्वीपमाख्याति, यथा समुद्रान्त:पतितस्य जन्तोर्जलकल्लोलाकुलितस्य मुमूरतिश्रान्तस्य विश्रामहेतुं द्वीपं कश्चित्साधुर्वत्सलतया समाख्याति, एवं तं तथाभूतं "द्वीपं" सम्यग्दर्शनादिकं संसारभ्रमणविश्रामहेतुं परतीर्थिकैरनाख्यातपूर्वमाख्याति, एवं च कृत्वा प्रतिष्ठानं प्रतिष्ठा - संसारभ्रमणविरतिलक्षणैषा सम्यग्दर्शनाद्यवाप्तिसाध्या मोक्षप्राप्तिः प्रकर्षेण तत्त्वज्ञैः "उच्यते" प्रोच्यत इति ॥२३॥
टीकार्थ - मिथ्यात्व, कषाय और प्रमाद आदि जो संसार सागर की धारा है. उसके द्वारा बहाये की ओर जाते हुए तथा अपने कर्म के उदय से दुःख भोगते हुए शरण रहित प्राणियों के विश्राम के लिए दूसरे के हित में तत्पर, विना कारण कृपा करनेवाले तीर्थङ्कर, गणधर और आचार्य आदि सुन्दर द्वीप का उपदेश करते हैं । जैसे समुद्र में गिरा हुआ कोई प्राणी जल के तरङ्गों से घबराया हुआ और अत्यन्त थका हुआ तथा मरणासन्न हो रहा हो तो उसको विश्राम देने के लिए कोई दयालु साधु [सज्जन पुरुष] द्वीप का उपदेश करता है, इसी तरह संसार में भ्रमण करने से थके हुए प्राणियों के विश्राम के लिए तीर्थकर आदि, परतीर्थियों के द्वारा उपदेश न किये हुए सम्यग्दर्शन आदि का उपदेश करते हैं । तत्त्वज्ञ पुरुष कहते हैं कि इस सम्यग्दर्शन आदि के द्वारा ही जीव को संसार भ्रमण से विश्राम प्राप्ति रूप मोक्ष की प्राप्ति होती है ॥२३॥
- किंभूतोऽसावाश्वासद्वीपो भवति ? कीदृग्विधेन वाऽसावाख्यायत इत्येतदाह -
- प्राणियों के विश्राम का कारणरूप वह द्वीप कैसा है ? तथा कैसा पुरुष उस द्वीप का उपदेश करता है ? यह बताने के लिए शास्त्रकार कहते हैं - आयगुत्ते सया दंते, छिन्नसोए अणासवे । जे धम्मं सुद्धमक्खाति, पडिपुन्नमणेलिसं॥२४॥
छाया - आत्मगुप्तः सदा दान्तच्छिवासोता अनाश्रवः । यो धर्म शुद्धमाख्याति प्रतिपूर्णमनीदृशम् ॥
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