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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते एकादशमध्ययने गाथा २२
श्रीमार्गाध्ययनम् "द्विधापि" अस्ति नास्ति वा पुण्यमित्येवं "ते" मुमुक्षवः साधवः पुनर्न भाषन्ते, किन्तु पृष्टैः सद्भिर्मोनं समाश्रयणीयं, निर्बन्धे त्वस्माकं द्विचत्वारिंशद्दोषवर्जित आहारः कल्पते, एवंविधविषये मुमुक्षूणामधिकार एव नास्तीति, उक्तं च - “सत्यं वप्रेषु शीतं शशिकरधवलं वारि पीत्वा प्रकामं, व्युच्छिलाशेषतृष्णाः प्रमुदितमनसः प्राणिसार्था भवन्तिी शोषं नीते जलौघे दिनकरकिरणैर्यान्यनन्ता विनाशं, तेनोदासीनभावं व्रजति मुनिगणः कूपवप्रादिकार्य ||१||"
तदेवमुभयथापि भाषिते "रजसः" कर्मण "आयो" लाभो भवतीत्यतस्तमायं रजसो मौनेनानवद्यभाषणेन वा "हित्वा" त्यक्त्वा "ते" अनवद्यभाषिणो “निर्वाणं" मोक्षं प्राप्नुवन्तीति ॥२१॥
टीकार्थ - अन्नशाला, जलशाला आदि दानों में पुण्य होता है, यह यदि साधु कहे तो अनन्त सूक्ष्म और बादर जीवों का सदा नाश हो और थोडे जीवों की थोडे काल तक तप्ति हो. इसलिए उक्त । है, यह साधु न कहे । यदि इन दानों में पुण्य नहीं होता है, ऐसा साधु कहे तो दानार्थी जीवों के लाभ में अन्तराय हो, इसलिए मोक्षार्थी पुरुष, उक्त दानों में पुण्य या पाप होना नहीं कहते हैं, किन्तु किसी के पूछने पर मौन धारण करते हैं। यदि कोई अधिक आग्रह करे तो साधु को कहना चाहिए कि "हमलोग बयालीस दोषों को वर्जित करके आहार लेते हैं, अतः ऐसे विषय में मोक्षार्थी पुरुषों का अधिकार नहीं है" । अत एव कहा है कि
(सत्यं) अर्थात् जलाशयों में ठंडा और चन्द्रकिरण के समान सफेद जल को पीकर प्राणिवर्ग तृष्णा रहित और प्रसन्नचित्त हो जाते हैं, यह सत्य है, तथापि सूर्य के किरणों द्वारा जलाशय का जल सूख जाने पर अनन्त प्राणी नाश को प्राप्त होते हैं, इसलिए मुनि महात्मा, कूप खोदने और तालाब बनाने आदि दानों में मुनिगण मध्यस्थ भाव (उदासीन भाव) धारण करते है । मौन रहते हैं।
अतः पुण्य या पाप दोनों ही बातों के कहने से कर्म का बन्ध होना जानकर इस विषय में मौन रहकर तथा निरवद्य भाषण के द्वारा कर्म के आय को त्यागकर मोक्ष को प्राप्त करते हैं ॥२॥
अपि च - निव्वाणं परमं बुद्धा, णक्खत्ताण व चंदिमा । तम्हा सदा जए दंते, निव्वाणं संधए मुणी
॥२२॥ छाया - निर्वाणं परमं बुद्धाः नक्षत्राणामिव चन्द्रमाः । तस्मात् सदा यतो दान्तः निर्वाणं साधयेन्मुनिः ॥
अन्वयार्थ - (नक्खत्ताणं चंदिमा व) जैसे नक्षत्रों में चन्द्रमा प्रधान है इसी तरह (निव्वाणं परमं बुद्धा) निर्वाण को सबसे उत्तम माननेवाले पुरुष सब से श्रेष्ठ हैं । (मुणी सया जए दंते निव्वाणं संधए) इसलिए मुनि, सदा प्रयत्नशील और जितेन्द्रिय होकर मोक्ष का साधन करे ।
भावार्थ - जैसे चन्द्रमा सब नक्षत्रों में प्रधान है, इसी तरह मोक्ष को सबसे उत्तम जाननेवाला पुरुष सबसे प्रधान है, अतः मुनि सदा प्रयत्नशील और जितेन्द्रिय होकर मोक्ष का साधन करे ।
टीका - निर्वृतिनिर्वाणं तत्परमं - प्रधानं येषां परलोकार्थिनां बुद्धानां ते तथा तानेव बुद्धान् निर्वाणवादित्वेन प्रधानानित्येतद् दृष्टान्तेन दर्शयति - यथा “नक्षत्राणाम्" अश्विन्यादीनां सौम्यत्वप्रमाण-प्रकाशकत्वैरधिकश्चन्द्रमाः, एवं परलोकार्थिनां बुद्धानां मध्ये ये स्वर्गचक्रवर्तिसंपन्निदानपरित्यागेनाशेषकर्मक्षयरूपं निर्वाणमेवाभिसंधाय प्रवृत्तास्त एव प्रधाना नापर इति, यदिवा यथा नक्षत्राणां चन्द्रमाः प्रधानभावमनुभवति एवं लोकस्य निर्वाणं परमं प्रधानमित्येवं "बुद्धा" अवगततत्त्वाः प्रतिपादयन्तीति, यस्माच्च निर्वाणं प्रधानं तस्मात्कारणात् "सदा" सर्वकालं “यतः" प्रयतः प्रयत्नवान् (ग्रं० ६०००) इन्दियनोइन्द्रियदमनेन दान्तो "मुनिः" साधुः “निर्वाणमभिसंधयेत्' निर्वाणार्थं सर्वाः क्रियाः कुर्यादित्यर्थः ॥२२॥ किञ्चान्यत् - 1. वप्रपाकाररोधसोः।
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