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श्रीमार्गाध्ययनम्
सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते एकादशमध्ययने गाथा २०-२१ तथा अन्नशाला बनाना आदि कार्यों में पुण्य नही होता है, यह भी साधु न कहे ॥१९॥
- एनमेवार्थं पुनरपि समासतः स्पष्टतरं बिभणिषुराह -
- इसी बात को संक्षेप से स्पष्ट बताने के लिए शास्त्रकार कहते हैं - जे य दाणं पसंसंति, वहमिच्छति पाणिणं । जे य णं पडिसेहंति, वित्तिच्छेयं करंति ते
॥२०॥ छाया - ये च दानं प्रशंसन्ति वधमिच्छन्ति प्राणिनाम् । ये च तं प्रतिषेधन्ति, वृत्तिच्छेदं कुर्वन्ति ते ॥
अन्वयार्थ - (जे य दाणं पसंसंति) जो दान की प्रशंसा करते हैं (वहमिच्छंति पाणिणं) वे प्राणियों के वध की इच्छा करते हैं । (जे य णं पडिसेहंति) और जो दान का निषेध करते हैं (ते वित्तिच्छेयं करंति) वे जीविका का छेदन करते हैं।
भावार्थ - जो दान की प्रशंसा करते हैं, वे प्राणियों के वध की इच्छा करते हैं और जो दान का निषेध करते हैं वे प्राणियों की वृत्ति का छेदन करते हैं।
टीका - ये केचन प्रपासत्रादिकं दानं बहूनां जन्तूनामुपकारीतिकृत्वा "प्रशंसन्ति" श्लाघन्ते "ते" परमार्थानभिज्ञाः प्रभूततरप्राणिनां तत्प्रशंसाद्वारेण "वधं" प्राणातिपातमिच्छन्ति, तद्दानस्य प्राणातिपातमन्तरेणानुपपत्तेः, येऽपि च किल सूक्ष्मधियो वयमित्येवं मन्यमाना आगमसद्धावानभिज्ञाः "प्रतिषेधन्ति" निषेधयन्ति तेऽप्यगीतार्थाः प्राणिनां "वृत्तिच्छेदं" वर्तनोपायविघ्नं कुर्वन्तीति ॥२०॥
टीकार्थ - जलशाला बनाना अथवा अन्नशाला खोलना आदि दोनों को बहुत जीवों का उपकारक मानकर जो इनकी प्रशंसा करते हैं, वे सच्ची बात नहीं जानते हैं, वे उक्त दानों की प्रशंसा के द्वारा बहुत प्राणियों का घात कराना चाहते हैं क्योंकि प्राणियों के घात के बिना जलदान या अन्नदान नहीं हो सकता है। तथा जो अपने को सूक्ष्म बुद्धिवाला मानता हुआ आगम के रहस्य का अज्ञात पुरुष उक्त दानों का निषेध करता है, वह भी गीतार्थ नहीं है, क्योंकि वह प्राणियों की जीविका का विनाश करता है ॥२०॥
तदेवं राज्ञा अन्येन वेश्वरेण कूपतडागयागसत्रदानाद्युद्यतेन पुण्यसद्धावं पृष्टैर्मुमुक्षुभिर्यद्विधेयं तद्दर्शयितुमाह -
- इस प्रकार राजा, महाराजा आदि तथा दूसरा कोई धनवान् पुरुष, कूप खोदाना, तालाव, खोदाना, यज्ञ करना, अन्न दान, देना आदि कर्म करने के लिए उद्यत होकर साधु से इन कर्मों में पुण्य का अस्तित्व पूछे तो मोक्षार्थी मुनि को जो करना चाहिए, वह शास्त्रकार बतलाते हैं - दुहओवि ते ण भासंति, अत्थि वा नत्थि वा पुणो । आयं रयस्स हेच्चा णं, निव्वाणं पाउणंति ते
॥२१॥ छाया - द्विधाऽपि ते न भाषन्ते, अस्ति वा नास्ति वा पुनः । आयं रजसो हित्वा, निर्वाणं प्राप्नुवन्ति ते ॥
अन्वयार्थ - (ते दुहओवि अत्थि वा नत्यि पुणो ण भासंति) साधु उक्त दान में पुण्य होता है या नहीं होता है, यह दोनों ही नहीं कहते हैं । (रयस्स आयं हेच्चा ते निव्वाणं पाउणंति) इस प्रकार कर्म का आना त्यागकर वे मोक्ष को प्राप्त करते हैं।
भावार्थ - अन्नशाला, जलशाला आदि दानों में पुण्य होता है या पुण्य नहीं होता है, ये दोनों ही बात साधु नहीं कहते हैं । इस प्रकार कर्म का आना त्यागकर वे मोक्ष को प्राप्त करते हैं ।
टीका - यद्यस्ति पुण्यमित्येवमूचुस्ततोऽनन्तानां सत्त्वानां सूक्ष्मबादराणां सर्वदा प्राणत्याग एव स्यात् प्रीणनमात्रं तु पुनः स्वल्पानां स्वल्पकालीयमतोऽस्तीति न वक्तव्यं, नास्ति पुण्यमित्येवं प्रतिषेधेऽपि तदर्थिनामन्तरायः स्यादित्यतो
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