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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते एकादशमध्ययने गाथा १८-१९ श्रीमार्गाध्ययनम् - किमर्थं नानुमन्येत इत्याह - - कूप खोदाना, अन्नशाला या जलशाला बनाना आदि कार्यों का साधु अनुमोदन क्यों नहीं करे ? दाणट्ठया य जे पाणा, हम्मति तसथावरा । तेसिं सारक्खणट्ठाए, तम्हा अत्थित्ति णो वए ॥१८॥ छाया -दानार्थच ये प्राणाः हन्यन्ते त्रसस्थावराः । तेषां संरक्षणार्थाय तस्मादस्तीति नो वदेत् ॥ अन्वयार्थ - (दाणट्ठया) अन्नदान या जलदान देने के लिए (जे तसथावरा पाणा हम्मंति) जो त्रस और स्थावर प्राणी मारे जाते हैं (तेसिं सारक्खणट्ठाए) उनकी रक्षा करने के लिए (अत्थित्ति णो वए) पुण्य होता है, यह नहीं कहे । भावार्थ - अन्नदान और जलदान देने के लिए जो त्रस और स्थावर प्राणी मारे जाते हैं, उनकी रक्षा के लिए साधु "पुण्य होता है" यह न कहे । टीका - अन्नपानदानार्थमाहारमुदकं च पचनपाचनादिकया क्रियया कूपखननादिकया चोपकल्पयेत्, तत्र यस्माद् "हन्यन्ते" व्यापाद्यन्ते त्रसाः स्थावराश्च जन्तवः तस्मात्तेषां "रक्षणार्थ" रक्षानिमित्तं साधुरात्मगुप्तो जितेन्द्रियोऽत्र भवदीयानुष्ठाने पुण्यमित्येवं नो वदेदिति ॥१८॥ टीकार्थ - इसका समाधान देने के लिए शास्त्रकार कहते हैं- अन्नदान देने के लिए पचन, पाचन आदि क्रिया के द्वारा आहार बनाया जाता है और जलदान देने के लिए कूप आदि खोदना पड़ता है, इन कार्यों में त्रस और स्थावर प्राणियों का नाश होता है, अतः उनकी रक्षा के लिए आत्मगुप्त जितेन्द्रिय साधु "तुम्हारे अनुष्ठान में पुण्य है" यह न कहे।।१८॥ यद्येवं नास्ति पुण्यमिति ब्रूयात्, तदेतदपि न ब्रूयादित्याह - अन्नदान के लिए पचन, पाचन आदि क्रिया करने में तथा जलदान के लिए कूप खोदने आदि कार्य में बहुत जीव मरते हैं, अतः इस कार्य में पुण्य नही होता है, यह साधु क्यों नहीं कह सकता है ? कहते है कि साधु यह भी न कहेजेर्सि तं उवकप्पंति, अन्नपाणं तहाविहं । तेसिं लाभंतरायंति, तम्हा णस्थित्ति णो वए ॥१९॥ छाया - येषान्तदुपकल्पयन्त्यबापानं तथाविधम् । तेषां लाभान्तराय इति, तस्मानास्तीति नो वदेत् ।। अन्वयार्थ - (जेसिं त) जिन प्राणियों को दान देने के लिए (तहाविहं अन्नपाणं उवकप्पंति) उस तरह का अन्नपान बनाया जाता है (तेसिं लाभतरायंति) उनके लाभ में अन्तराय न हो (तम्हा) इसलिए (नत्थि त्ति णो वए) पुण्य नहीं है, यह भी न कहे । भावार्थ - जिन प्राणियों को दान देने के लिए, वह अन्न, जल तैय्यार किया जाता है, उनके लाभ में अन्तराय न हो, इसलिए पुण्य नहीं है, यह भी साधु न कहे । टीका - "येषां" जन्तूनां कृते "तद्" अन्नपानादिकं किल धर्मबुद्ध्या "उपकल्पयन्ति" तथाविधं प्राण्युपमर्ददोषदुष्टं निष्पादयन्ति, तनिषेधे च यस्मात् “तेषाम्" आहारपानार्थिनां तत् "लाभान्तरायो" विघ्नो भवेत्, तदभावेन तु ते पीडयेरन्, तस्मात्कूपखननसत्रादिके कर्मणि नास्ति पुण्यमित्येतदपि नो वदेदिति ॥१९॥ टीकार्थ - जिन प्राणियों को दान देने के लिए जीवों का नाशरूप दोष से दूषित वह अन्न और जल धर्म समझकर बनाया जाता है, उस अन्न, जल में पुण्य नहीं है, ऐसा कहने पर उस अन्न और जल की इच्छा करनेवाले प्राणियों के लाभ में अन्तराय होगा और वे बिचारे उस अन्न और जल के अभाव से पीड़ा पायेंगे इसलिए कूप खोदना ४८२
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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