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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते एकादशमध्ययने गाथा १६-१७ श्रीमार्गाध्ययनम् हणंतं णाणुजाणेज्जा, आयगुत्ते जिइंदिए । ठाणाई संति सड्ढीणं, गामेसु नगरेसु वा ॥१६॥ छाया - पन्तं नानुजानीयादात्मगुप्तो जितेन्द्रियः । स्थानानि सन्ति श्रद्धावतां ग्रामेषु नगरेषु वा ॥ अन्वयार्थ - (सड्ढीणं गामेसु नगरेसु वा) धर्म में श्रद्धा रखनेवाले श्रावकों के ग्रामों में या नगरों में (ठाणाई संति) साधुओं का निवास होता है । (आयगुत्ते जिईदिए) अतः आत्मगुप्त जितेन्द्रिय साधु (हणंतं णाणुजाणेज्जा) जीवहिंसा करनेवाले को अनुमति न देवे। भावार्थ - श्रावकों के ग्रामों में या नगरों में साधुओं को रहने के लिए स्थान प्राप्त होता है, अतः वहां यदि कोई धर्मबद्धि से जीव हिंसामय कार्य करे तो आत्मा को पाप से दूर रखनेवाला जितेन्द्रिय साधु उसकी अनुमति न देवे । टीका - धर्मश्रद्धावतां ग्रामेषु नगरेषु वा खेटकर्बटादिषु वा "स्थानानि" आश्रयाः "सन्ति" विद्यन्ते, तत्र तत्स्थानाश्रितः कश्चिद्धर्मोपदेशेन किल धर्मश्रद्धालुतया प्राण्युपमर्दकारिणीं धर्मबुद्धया कूपतडाग-खननप्रपासत्रादिकां क्रियां कुर्यात् तेन च तथाभूतक्रियायाः कळ किमत्र धर्मोऽस्ति नास्तीत्येवं पृष्टोऽपृष्टो वा तदुपरोधादयाद्वा तं प्राणिनो घ्नन्तं नानुजानीयात्, किंभूतः सन् ? "आत्मना" मनोवाक्कायरूपेण गुप्त आत्मगुप्तः तथा "जितेन्द्रियो" वश्येन्द्रियः सावद्यानुष्ठानं नानुमन्येत ॥१६॥ टीकार्थ - धर्म में श्रद्धा रखनेवालों (श्रावकों) के ग्राम, नगर, खेडा, और कर्बट आदि में साधओं को रहने का स्थान प्राप्त होता है, इसलिए उन स्थानों में रहनेवाला कोई धर्मश्रद्धालु पुरुष धर्मोपदेश सुनकर जीवों का घात करनेवाली क्रिया अर्थात् कूप खोदाना, प्याउ बनाना या अन्नक्षेत्र करना आदि क्रियायें करना चाहता हो, और वह साधु के पास आकर पूछे कि इस कार्य में धर्म है या नहीं है ? अथवा न पूछे तो साधु उसके शर्म से अथवा भय से प्राणियों की हिंसा करते हुए, उस पुरुष को अनुज्ञा न देवे । (प्रश्न) कैसा होकर ? (उत्तर) मन, वचन और काय से गुप्त होकर तथा इन्द्रियों को वश कर साधु सावध अनुष्ठान का अनुमोदन न करे ॥१६॥ सावद्यानुष्ठानानुमति परिहर्तुकाम आह - सावध अनुष्ठान के अनुमोदन का त्याग करने के लिए शास्त्रकार कहते हैं - तहा गिरं समारब्भ, अत्थि पुण्णंति णो वए । अहवा णत्थि पुण्णंति, एवमेयं महब्भयं ॥१७॥ छाया - तथा गिरं समारण्य, अस्तिपुण्यमिति नो वदेत् । अथवा नास्ति पुण्यमित्येवमेतद् महाभयम् ।। अन्वयार्थ - (तहा गिरं समारब्म) उस प्रकार की वाणी सुनकर (अत्थि पुण्णंति णो वए) पुण्य है, यह न कहे (अथवा णत्थि पुण्णंति एव मेयं महब्मय) अथवा पुण्य नही है, यह कहना भी महान् भयदायक है। भावार्थ- यदि कोई कूप आदि खोदाना चाहता हुआ साधु से पूछे कि "मेरे इस कार्य में पुण्य है या नहीं?" तो इस वाणी को सुनकर साधु, पुण्य है, यह न कहे तथा पुण्य नहीं है, यह कहना भी महान् भय का कारण है, इसलिए यह भी न कहे। टीका - केनचिद्राजादिना कूपखननसत्रदानादिप्रवृत्तेन पृष्टः साधुः - किमस्मदनुष्ठाने अस्ति पुण्यमाहोस्विन्नास्तीति ? एवंभूतां गिरं "समारभ्य" निशम्याश्रित्य अस्ति पुण्यं नास्ति वेत्येवमुभयथापि महाभयमिति मत्वा दोषहेतुत्वेन नानुमन्येत ॥१७॥ टीकार्थ - कूप खोदाना या अन्नसत्र बनाना आदि कार्य में प्रवृत्त कोई राजा आदि साधु से यदि पूछे कि मेरे इस कार्य में पुण्य है या नहीं है, तो साधु उसकी वाणी सुनकर "पुण्य है या नही है" इन दोनों उत्तरों में दोष देखकर तथा दोनों में महान् भय जानकर किसी का भी अनुमोदन न करे ॥१७॥ ४८१
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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