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सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते एकादशमध्ययने गाथा १४-१५
1 भूयाइं च समारंभ, तमुद्दिस्सा य जं कडं ।
तारसं तु ण गिज्जा, अन्नपाणं सुसंजए
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छाया - भूतानि च समारभ्य, तमुद्दिश्य च यत्कृतम् । तादृशन्तु न गृह्णीयादन्नपानं सुसंयतः ॥ अन्वयार्थ - (भूयाई च समारंभ) जो आहार भूतों का आरम्भ करके बनाया गया है (तमुद्दिस्सा य जं कडं) तथा जो साधु को देने के लिए किया गया है (तारिसं तु अन्नपाणं) वैसे अन्न पान को ( सुसंजए ) उत्तम साधु (ण गिछेज्जा) न ग्रहण करे ।
भावार्थ - जो आहार भूतों को पीड़ा देकर तथा साधुओं को देने के लिए किया गया है, उसे उत्तम साधु ग्रहण
न करे ।
टीका - अभूवन् भवन्ति भविष्यन्ति च प्राणिनस्तानि भूतानि प्राणिनः “समारभ्य" संरम्भसमारम्भारम्भैरुपतापयित्वा तं साधुम् “उद्दिश्य' साध्वर्थं यत्कृतं तदुपकल्पितमाहारोपकरणादिकं "तादृशम्" आधाकर्मदोषदुष्टं "सुसंयतः " सुतपस्वी तदन्नं पानकं वा न भुञ्जीत, तुशब्दस्यैवकारार्थत्वान्नैवाभ्यवहरेद्, एवं तेन मार्गोऽनुपालितो भवति ॥ १४॥ किञ्च
श्रीमार्गाध्ययनम्
टीकार्थ जो पहले थे, तथा वर्तमान में रहते हैं और भविष्य में भी रहेंगे, उन्हें भूत कहते हैं, वे प्राणी हैं, उन प्राणियों को संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ के द्वारा पीड़ा देकर तथा साधुओं को दान देने के लिए जो आहार और उपकरण आदि बनाया गया है, वह आधाकर्मरूप दोष से दूषित है, अतः ऐसे अन्न या पान को उत्तम तपस्वी साधु न खाये । तु शब्द एवकारार्थक है, इसलिए ऐसे आहार को साधु कदापि न खाये यह अर्थ है । ऐसा करने से ही उस साधु के द्वारा मोक्षमार्ग का पालन होता है ॥ १४॥
पूर्वकम्मं न सेविज्जा, एस धम्मे वसीमओ ।
जं किंचि अभिकंखेज्जा, सव्वसो तं न कप्पए
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छाया - पूतिकर्म न सेवेत, एष धर्मः संयमवतः । यत्किञ्चिदभिकाङ्क्षेत, सर्वशस्तल कल्पते ॥
अन्वयार्थ - (पूईकम्मं न सेविज्जा) जो आहार आधाकर्मी आहार के एक कण से भी युक्त है, उसे साधु न सेवे । (सीमओ ए धम्मे) शुद्ध संयम पालनेवाले साधु का यही धर्म है (जं किंचि अभिकंखेज्जा) शुद्ध आहार में भी यदि अशुद्धि की शङ्का हो जाय तो ( सव्वसो तं न कप्पए) वह भी साधु को ग्रहण करने योग्य नहीं है ।
भावार्थ - आधाकर्मी आहार के एक कण से भी मिला हुआ आहार साधु न लेवे । शुद्ध संयम पालने वाले साधु का यही धर्म है । तथा शुद्ध आहार में यदि अशुद्धि की शङ्का हो जाय तो उसे भी साधु ग्रहण न करे ।
टीका - आधाकर्माद्यविशुद्धकोटयवयवेनापि संपृक्तं पूतिकर्म, तदेवंभूतमाहारादिकं "न सेवेत" नोपभुञ्जीत, एषः अनन्तरोक्तो धर्मः ±कल्पः स्वभावः " वुसीमओ" त्ति सम्यक्संयमवतोऽयमेवानुष्ठानकल्पो यदुताशुद्धमाहारादिकं परिहरतीति, किञ्च - यदप्यशुद्धत्वेनाभिकाङ्क्षेत् - शुद्धमप्यशुद्धत्वेनाभिशङ्केत किञ्चिदप्याहारादिकं तत् "सर्वशः” सर्वप्रकारमप्याहारोपकरणपूतिकर्म भोक्तुं न कल्पत इति ॥ १५ ॥ किञ्चान्यत् -
टीका
जो आहार, आधाकर्मी आदि अविशुद्धि कोटि के आहार के एक कण से भी मिला हुआ है, उसे पूतिकर्म कहते हैं, एसे आहार आदि का साधु उपभोग न करे, शुद्ध संयम पालने वाले साधु का यही स्वभाव धर्म अथवा रीति है कि वे अशुद्ध आहार आदि नहीं लेते हैं । जो आहार शुद्ध होकर भी अशुद्धि की शङ्का से युक्त है, वह भी साधु के ग्रहण करने योग्य नहीं है || १५ |
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1. भूयाई च समारंभ समुद्दिस्सा य जं कडं समग्रेष्वादर्शेषु दृश्यमानेषु पाठः, टीकायां तु न तथा । 2. कल्पस्वभावः प्र० ब्रूमः ।