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________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते एकादशमध्ययने गाथा १३ करे । टीका - इन्द्रियाणां प्रभवतीति प्रभुर्वश्येन्द्रिय इत्यर्थः, यदिवा संयमावारकाणि कर्माण्यभिभूय मोक्षमार्गे पालयितव्ये प्रभुः – समर्थः, स एवंभूतः प्रभुः दूषयन्तीति दोषा - मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगास्तान् “निराकृत्य” अपनीय केनापि प्राणिना सार्धं "न विरुध्येत" न केनचित्सह विरोधं कुर्यात्, त्रिविधेनापि योगेनेति मनसा वाचा कायेन चैवान्तशो यावज्जीवं, परापकारक्रियया न विरोधं कुर्यादिति ॥ १२ ॥ - - - टीकार्थ जिसने इन्द्रियों का विजय किया है, उसे "प्रभु" कहते हैं अथवा संयम को रोकने वाले कर्मों को जीतकर जो मोक्षमार्ग का पालन करने में समर्थ है, उसे प्रभु कहते हैं । वह पुरुष, मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, और योगरूप दोषों को दूर कर किसी प्राणी के साथ विरोध न करे । वह तीनो योगों से तथा मन, वचन और शरीर से जीवन भर दूसरे का अपकार करके किसी के साथ विरोध न करे ||१२|| उत्तरगुणानधिकृत्याह अब शास्त्रकार उत्तर गुणों के विषय में कहते हैं संवुडे से महापन्ने, धीरे दत्तेसणं चरे एसणासमिए णिच्चं, वज्जयंते अणेसणं - - ।।१३।। छाया - संवृतः स महाप्राज्ञो धीरो दत्तेषणाश्चरेत् । एषणा समितो नित्यं वर्जयन्तोऽनेषणाम् ॥ अन्वयार्थ - ( से संवुडे महापत्रे धीरे ) वह साधु बड़ा बुद्धिमान् और धीर है ( दत्तेसणं चरे) जो दिया हुआ एषणीय आहार आदि लेता है । (णिच्वं एसणासमिए) तथा जो सदा एषणा समिति से युक्त रहता हुआ (अणेसणं वज्जयंते) अनेषणीय आहार को वर्जित करता है । भावार्थ वह साधु बड़ा बुद्धिमान् और धीर है, जो सदा दूसरे का दिया हुआ एषणीय ही आहार आदि ग्रहण करता है तथा जो एषणा समिति से युक्त रहकर अनेषणीय आहार को वर्जित करता है । श्रीमार्गाध्ययनम् - टीका - आश्रवद्वाराणां रोधेनेन्द्रियनिरोधेन च संवृतः स भिक्षुर्महती प्रज्ञा यस्यासौ महाप्रज्ञो विपुलबुद्धिरित्यर्थः, तदनेन जीवाजीवादिपदार्थाभिज्ञतावेदिता भवति, "धीरः" अक्षोभ्यः क्षुत्पिपासादिपरीषहैर्न क्षोभ्यते, तदेव दर्शयति आहारोपधिशय्यादिके स्वस्वामिना तत्संदिष्टेन वा दत्ते सत्येषणां चरति एषणीयं गृह्णातीत्यर्थः, एषणाया एषणायां वा गवेषणग्रहणग्रासरूपायां त्रिविधायामपि सम्यगितः समितः, स साधुर्नित्यमेषणासमितः सन्ननेषणां "वर्जयन्" परित्यजन्संयममनुपालयेत् उपलक्षणार्थत्वादस्य शेषाभिरपीर्यासमित्यादिभिः समितो द्रष्टव्य इति ॥ १३ ॥ - टीकार्थ आश्रवद्वारों को तथा इन्द्रियों को रोककर पाप से बचा हुआ वह भिक्षु बहुत बुद्धिमान है ( इससे यह सूचना दी जाती है कि वह साधु जीव और अजीव आदि नव तत्त्वों को जाननेवाला है) जो क्षुधा और पिपासा से चलायमान नहीं होता है । यही शास्त्रकार दिखाते हैं आहार, उपधि और शय्या वगैरह उनके स्वामी के द्वारा अथवा उनके स्वामी से प्रेरित दूसरे के द्वारा देने पर जो उन्हें जाँच कर एषणीय ही लेता है तथा जो साधु शोधन करना और खाना इन तीनों प्रकार की एषणा में सदा युक्त रहता है । इस प्रकार अनेषणीय वस्तु को छोड़ता हुआ साधु संयम का पालन करे । यह एषणासमिति उपलक्षण है, इसलिए ईर्ष्या समिति आदि समितियों से युक्त रहता हुआ साधु संयम का पालन करे, यह अर्थ भी जानना चाहिए ||१३|| अनेषणीयपरिहारमधिकृत्याह अब शास्त्रकार अनेषणीय वस्तु का त्याग के विषय में कहते हैं - ४७९
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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