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सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते एकादशमध्ययने गाथा ११-१२
श्रीमार्गाध्ययनम् (किं ताए ) अर्थात् उस पढ़ने से क्या ? तथा पलाल के समान करोंडो पदों के पढ़ने से क्या प्रयोजन है? जिनसे यह भी ज्ञान नहीं होता है कि दूसरे को पीड़ा न देनी चाहिए ।
यही अहिंसा प्रधान शास्त्र का उपदेश है, इतना ही ज्ञान पर्य्याप्त है, दूसरे बहुत ज्ञान का क्या प्रयोजन है? क्योंकि मोक्ष जानेवाले पुरुष के इष्ट अर्थ की प्राप्ति इतने से ही हो जाती है, अतः किसी जीव की हिंसा न करनी चाहिए ॥१०॥
साम्प्रतं क्षेत्र प्राणातिपातमधिकृत्याह
अब शास्त्रकार क्षेत्र प्राणातिपात के विषय में कहते हैं
उड्डुं अहे य तिरियं, जे केइ तसथावरा । सव्वत्थ विरतिं कुज्जा, संति निव्वाणमाहियं
॥११॥
छाया - ऊर्ध्वमथस्तिर्य्यक, ये केचित् त्रसस्थावराः । सर्वत्र विरति कुर्य्यात् शान्तिनिर्वाणमाख्यातम् ।
अन्वयार्थ - ( उड्ढं अहे य तिरियं ) ऊपर, नीचे और तिरच्छा (जे केइ तसथावरा) जो त्रस और स्थावर प्राणी हैं (सव्वत्य विरतिं कुज्जा) सर्वत्र उनकी हिंसा से निवृत रहना चाहिए (संति निव्वाणमाहियं) इस प्रकार जीव को शान्तिमय मोक्ष की प्राप्ति कही गयी है ।
भावार्थ - ऊपर, नीचे और तिरछा जो त्रस और स्थावर प्राणी निवास करते हैं, उन सब की हिंसा से निवृत्त रहने से मोक्ष की प्राप्ति कही गयी है ।
टीका - ऊर्ध्वमधस्तिर्यक् च ये केचन त्रसाः तेजोवायुद्वीन्द्रियादयः तथा स्थावराः - पृथिव्यादयः, किं बहुनोक्तेन ? " सर्वत्र" प्राणिनि त्रसस्थावरसूक्ष्मबादरभेदभिन्ने "विरतिं" प्राणातिपातनिवृत्तिं "विजानीयात्" कुर्यात्, परमार्थत एवमेवासौ ज्ञाता भवति यदि सम्यक् क्रियत इति, एषैव च प्राणातिपातनिवृत्तिः परेषामात्मनश्च शान्तिहेतुत्वाच्छान्तिर्वर्तते, यतो विरतिमतो नान्ये केचन बिभ्यति, नाप्यसौ भवान्तरेऽपि कुतश्चिद्विभेति, अपिच - निर्वाणप्रधानैककारणत्वान्निर्वाणमपि प्राणातिपातनिवृत्तिरेव, यदिवा शान्तिः उपशान्तता निर्वृतिः - निर्वाणं विरतिमांश्चार्तरौद्रध्यानाभावादुपशान्तिरूपो निर्वृतिभूतश्च भवति ॥११॥ किञ्चान्यत् -
टीकार्थ - ऊपर, नीचे और तिरछा जो कोई अग्नि, वायु और द्वीन्द्रिय आदि त्रस प्राणी रहते हैं तथा पृथिवी आदि जो स्थावर प्राणी है, बहुत कहने से क्या प्रयोजन है ? उन त्रस, स्थावर, सूक्ष्म और बादर सभी प्राणियों की हिंसा से निवृत्त रहना चाहिए । जो पुरुष ऐसा करता है वस्तुतः वही ज्ञानी है । जीव हिंसा से निवृत्त रहना ही अपनी और दूसरे की शान्ति का कारण होने के कारण शान्ति है । जो पुरुष जीव हिंसा नहीं करता है, उससे कोई प्राणी डरते नही है और वह भी जन्मान्तर में भी किसी से नहीं डरता है । तथा मोक्ष का प्रधान कारण होने से जीव हिंसा से निवृत्त रहना ही मोक्ष है । अथवा क्रोध न करना शान्ति है और सुख को निर्वाण कहते हैं, अतः जो पुरुष जीव हिंसा से निवृत्त है, वह आर्त्त तथा रौद्र ध्यान के
अभाव से शान्तिरूप और सुखरूप है ||११||
पभू दोसे निराकिच्चा, ण विरुज्झेज्ज केणई | मणसा वयसा चेव, कायसा चेव अंतसो
।।१२।।
छाया - प्रभुर्दोषं निराकृत्य, न विरुध्येत केनचित् । मनसा वचसा चैव, कायेन चैवान्तशः ॥ अन्वयार्थ - (पभू दोसे निराकिच्चा) जितेन्द्रिय पुरुष दोषों को हटाकर (केणई मणसा वयसा कायसा अंतसो ण विरुज्झेज्ज) किसी से मन, वचन और काय के द्वारा विरोध न करे ।
भावार्थ - जितेन्द्रिय पुरुष दोषों को हटाकर मन, वचन और काय से जीवन पर्यन्त किसी के साथ विरोध न
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