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________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते एकादशमध्ययने गाथा १० श्रीमार्गाध्ययनम् युक्तिसङ्गत सद्धेतुओ से पृथिवी आदि जीवों का जीवत्व सिद्धः करे । तथा इनका जीवत्व सिद्धः करके ये सभी प्राणी दुःख के द्वेषी और सुख के इच्छुक हैं, यह जानकर किसी की भी हिंसा न करे । पृथिवी आदि पदार्थो में जीव सिद्ध करनेवाली युक्तियाँ संक्षेप से ये हैं पृथिवी, जीवसहित है, क्योंकि पृथिवीस्वरूप प्रवाल, नमक और पत्थर आदि अपने समान अङ्कुर उत्पन्न करते हुए देखे जाते हैं, जैसे अर्श अपना विकार अङ्कुर उत्पन्न करता है। तथा पानी सचेतन है क्योंकि पृथिवी के खोदने पर उसके स्वभाव में कोई विकार नही होता है, जैसे मेंढ़क के स्वभाव में कोई विकार नहीं होता है । तथा अग्नि भी चेतन है, क्योंकि अनुकूल आहार मिलने पर वह बढ़ती है, जैसे बालक आहार मिलने पर बढ़ता है । एवं वायु चेतन है क्योंकि वह गाय की तरह किसी की प्रेरणा के बिना ही नियम से तिरछा दौड़ता है । तथा वनस्पति सचेतन है क्योंकि स्त्री के समान जन्म, जरा, मरण और रोग आदि सभी उसमें देखे जाते है तथा कोई वनस्पति काटकर बोने से भी उगती है एवं वह हम लोगों के समान आहारखाती है तथा उसको दोहद भी होता है एवं कोई वनस्पति स्पर्श करने पर संकुचित होती है तथा वह रात में सोती और दिन में जागती है तथा आश्रय पाकर बढ़ती है । इन हेतुओं से वनस्पति का जीव होना सिद्ध होता है । तथा दो इन्द्रियवाले कृमि आदि का चैतन्य तो साफ नजर आता । इन प्राणियों में होनेवाली स्वाभाविक और औपक्रमिक वेदना को जानकर बुद्धिमान् पुरुष मन, वचन और काय से तथा करने, कराने और अनुमति देनेरूप नव भेदों से इनकी पीड़ा से निवृत्त हो जाय ॥ ९ ॥ एतदेव समर्थयन्नाह इसी अहिंसा का ही समर्थन करते हुए शास्त्रकार कहते हैं एयं खुणाणिणो सारं, जं न हिंसति कंचण । अहिंसा समयं चेव, एतावंतं विजाणिया - - 118011 छाया - एवं खलु ज्ञानिनः सारं यज्ञ हिनस्ति कञ्चन । अहिंसा समयशेव, एतावन्तं विजानीयात् ॥ अन्वयार्थ - ( णाणिणो एवं खु सारं ) ज्ञानी पुरुष का यही उत्तम ज्ञान है (जं न कंचण हिंसति) जो वह किसी जीव की हिंसा नहीं करता है (अहिंसा समयं चैव एतावंतं विजाणीया) अहिंसा के समर्थक शास्त्र का भी इतना ही सिद्धान्त जानना चाहिए । भावार्थ - ज्ञानी पुरुष का यही उत्तम ज्ञान है कि वे किसी जीव की हिंसा नहीं करते हैं, अहिंसा का सिद्धान्त भी इतना ही जानना चाहिए । टीका खुशब्दो वाक्यालङ्कारेऽवधारणे वा, "एतदेव" अनन्तरोक्तं प्राणातिपातनिवर्तनं "ज्ञानिनो" जीवस्वरूपतद्वधकर्मबन्धवेदिनः "सारं" परमार्थतः प्रधानं, पुनरप्यादरख्यापनार्थमेतदेवाह - यत्कञ्चन प्राणिनमनिष्टदुःखं सुखैषिणं न हिनस्ति, प्रभूतवेदिनोऽपि ज्ञानिन एतदेव सारतरं ज्ञानं यत्प्राणातिपातनिवर्तनमिति, ज्ञानमपि तदेव परमार्थतो यत्परपीडातो निवर्तनं, तथा चोक्तम् " किं ताए पढियाए ? पयकोडीए पलालभूयाए । जत्थित्तियं ण णायं परस्स पीड़ा न कायव्वा ||१|| • आगम: संकेतो वोपदेशरूपस्तमेवंभूतमहिंसासमयमेतावन्तमेव विज्ञाय किमन्येन बहुना परिज्ञानेन ?, एतावतैव परिज्ञानेन मुमुक्षोर्विवक्षितकार्यपरिसमाप्तेरतो न हिंस्यात्कञ्चनेति ||१०| तदेवमहिंसाप्रधानः समय - - "खु" शब्द वाक्य की शोभा अथवा अवधारण अर्थ में आया है । पूर्वोक्त जीवहिंसा से बचना टीकार्थ ही, जीव का स्वरूप और उसके वध से होनेवाले कर्मबन्ध को जाननेवाले ज्ञानी का प्रधान कर्त्तव्य है । फिर अहिंसा में आदर सूचित करने के लिए यही बात कहते हैं, जो दुःख को बुरा मानते हुए सुख की इच्छा करते हैं, ऐसे प्राणियों को न मारना ही बड़े ज्ञानी के ज्ञान का सार है। जीव हिंसा से निवृत्त रहना ही ज्ञानी के ज्ञान का सार है । दूसरे जीव को पीड़ा देने से निवृत्त रहना ही सच्चा ज्ञान है, अत एव कहा है। 1. किन्तया पठितया पदकोट्यापि पलालभूतया यत्रैतावन्न ज्ञातं परस्य पीडा न कर्त्तव्या ॥१॥ ४७७
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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