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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते एकादशमध्ययने गाथा ९ श्रीमार्गाध्ययनम् प्रत्येकं पर्याप्तकापर्याप्तकभेदात्षड्विधाः, पञ्चेन्द्रियास्तु संश्यसंज्ञिपर्याप्तकापर्याप्तकभेदाच्चतुर्विधाः । तदेवमनन्तरोक्तया नीत्या चतुर्दशभूतग्रामात्मकतया षड्जीवनिकाया व्याख्यातास्तीर्थकरगणधरादिभिः, "एतावान्" एतद्देदात्मक एव संक्षेपतो "जीवनिकायो" जीवराशिर्भवति, अण्डजोद्विज्जसंस्वेदजादेरत्रैवान्तर्भावान्नापरो जीवराशिर्विद्यते कश्चिदिति॥८॥ टीकार्थ - पृथिवी, जल, तेज, वायु और वनस्पति, एकेन्द्रिय हैं और सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त तथा अपर्याप्त भेद से ये प्रत्येक चार -चार प्रकार के हैं । जो त्रास पाते हैं, वे त्रस कहे जाते हैं, वे दो, तीन, चार और पाँच इन्द्रियवाले होते हैं, वे क्रमशः कृमि, कीड़ी, भ्रमर और मनुष्य आदि है । इनमें दो, तीन, और चार इन्द्रियवाले प्रत्येक पर्याप्त और अपर्याप्त भेद से छः प्रकार के हैं । परन्तु पञ्चेन्द्रिय, संज्ञी, असंज्ञी पर्याप्त और अपर्याप्त भेद से चार प्रकार के हैं । इस प्रकार तीर्थङ्कर और गणधर, आदि ने कुल चौदह प्रकार के छः जीवनिकाय को बताया है । संक्षेप से इतनी ही जीवराशि है क्योंकि अण्डज, उद्विज्ज, और संस्वेदज आदि का इन्हीं में अन्तर्भाव हो जाता है। इसलिए इनसे भिन्न कोई दूसरी जीवराशि नहीं है ॥८॥ तदेवं षड्जीवनिकायं प्रदर्श्य यत्तत्र विधेयं तद्दर्शयितुमाह - इस प्रकार छ: काय के जीवों को बताकर उनमें क्या करना चाहिए यह बताने के लिए शास्त्रकार कहते सव्वाहिं अणुजुत्तीहिं, मतिमं पडिलेहिया। . सव्वे अक्कंतदुक्खा य, अतो सव्वे न हिंसया ।।९।। छाया - सर्वाभिरनुयुक्तिभिर्मतिमान् प्रतिलेख्य । सर्वेऽकान्तदुःखाश्चातः सर्वात हिंस्यात् ॥ अन्वयार्थ - (मतिम) बुद्धिमान् पुरुष (सव्वाहिं अणुजुत्तीहिं) सर्व युक्तियों से (पडिलेहिया) इन जीवों की सिद्धि करके (सव्वे अक्कंतदुक्खा) सभी को दुःख अप्रिय है, यह जाने (अतो सब्वे न हिंसया) और अत एव किसी की भी हिंसा न करे । भावार्थ - बुद्धिमान् सब युक्तियों के द्वारा इन जीवों का जीवपना सिद्ध करके ये सभी दुःख के द्वेषी हैं, यह जाने तथा इसी कारण किसी की भी हिंसा न करे । टीका - सर्वा याः काश्चनानुरूपाः - पृथिव्यादिजीवनिकायसाधनत्वेनानुकूला युक्तयः - साधनानि, यदिवा असिद्धविरुद्धानैकान्तिकपरिहारेण पक्षधर्मत्वसपक्षसत्त्वविपक्षव्यावृत्तिरूपतया युक्तिसंगता युक्तयः अनुयुक्तयस्ताभिरनुयक्तिभिः "मतिमान" सद्विवेकी पथिव्यादिजीवनिकायान "प्रत्यपेक्ष्य" पर्यालोच्य जीवत्वेन प्रसाध्य तथा सर्वेऽपि प्राणिनः "अकान्तदुःखा" दुःखद्विषः सुखलिप्सवश्च मन्वानो मतिमान् सर्वानपि प्राणिनो न हिंस्यादिति। युक्तयश्च तत्प्रसाधिकाः संक्षेपेणेमा इति-सात्मिका पृथिवी, तदात्मनां विद्रुमलवणोपलादीनां समानजातीयाङ्कुरसद्धावाद्, अर्थोविकारा कुरवत् । तथा सचेतनमम्भः, 'भूमिखननादविकृतस्वभावसंभवाद्, दर्दुरवत् । तथा सात्मकं तेजः, तद्योग्याहारवृद्धया वृद्धयुपलब्धेः, बालकवत् । तथा सात्मको वायुः, अपराप्रेरितनियततिरश्चीनगतिमत्त्वात्, गोवत्। तथा सचेतना वनस्पतयः, जन्मजरामरणरोगादीनां समुदितानां सद्भावात्, स्त्रीवत्, तथा क्षतसंरोहणाहारोपादान-दौहृदसद्धावस्पर्शसंकोचसायाह्नस्वापप्रबोधाश्रयोपसर्पणादिभ्यो हेतुभ्यो वनस्पतेश्चैतन्यसिद्धिः । द्वीन्द्रियादीनां तु पुनः कृम्यादीनां स्पष्टमेव चैतन्यं, तद्वेदनाश्चौपक्रमिकाः स्वाभाविकाश्च समुपलभ्य मनोवाक्कायैः कृतकारितानुमतिभिश्च नवकेन भेदेन तत्पीडाकारिण उपमर्दान्निवर्तितव्यमिति ॥९॥ टीकार्थ - जो पृथिवी आदि जीवों का जीवपना सिद्ध करने में समर्थ हैं, ऐसी अनुकूल युक्तियों के द्वारा बुद्धिमान् पुरुष पृथिवी आदि का जीवपना सिद्ध करे अथवा बुद्धिमान् पुरुष, असिद्ध, विरुद्ध और अनैकान्तिक को छोड़कर जो हेतु पक्ष में विद्यमान रहता है और सपक्ष में भी स्थित रहता है तथा विपक्ष में नहीं रहता है, उस 1. ननाधिकृत० । ननाविष्कृत० प्र० । ४७६
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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