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________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते एकादशमध्ययने गाथा २५-२६ श्रीमार्गाध्ययनम् अन्वयार्थ - (आयगुत्ते) अपने आत्मा को पाप से गोपन करनेवाला (सया दंते) तथा सदा जितेन्द्रिय होकर रहनेवाला (छिन्नसोए) संसार की मिथ्यात्व आदि धारा को तोड़ा हुआ (अणासवे ) तथा आश्रव रहित जो पुरुष है, वही (पडिपुन्नं) परिपूर्ण (अणेलिसं) और उपमारहित (सुद्धं धम्मं अक्खाति) शुद्ध धर्म का उपदेश करता है । भावार्थ - मन, वचन और काया से आत्मा को पाप से बचानेवाला, जितेन्द्रिय एवं संसार की मिथ्यात्व आदि धारा को काटा हुआ आश्रवरहित पुरुष परिपूर्ण उपमा रहित शुद्ध धर्म का उपदेश करता है । - टीका - मनोवाक्कायैरात्मा गुप्तो यस्य स आत्मगुप्तः, तथा "सदा" सर्वकालमिन्द्रियनोइन्द्रियदमनेन दान्तो - वश्येन्द्रियो धर्मध्यानध्यायी वेत्यर्थः, तथा छिन्नानि - त्रोटितानि संसारस्रोतांसि येन स तथा एतदेव स्पष्टतरमाह निर्गत आश्रवः प्राणातिपातादिकः कर्मप्रवेशद्वाररूपो यस्मात्स निराश्रवो य एवंभूतः स "शुद्धं" समस्तदोषापेतं धर्ममाख्याति, किंभूतं धर्मं ? "प्रतिपूर्णं" निरवयवतया सर्वविरत्याख्यं मोक्षगमनैकहेतुम् "अनीदृशम्" अनन्यसदृशमद्वितीयमितियावत् ॥ २४ ॥ टीकार्थ जिसका आत्मा, मन, वचन, और काया से गुप्त हैं तथा जो सदा इन्द्रिय और मन को दमन करके इन्द्रियों को वश कर लिया है अथवा धर्मध्यान को ध्याता है तथा जिसने संसार की धारा का छेदन कर दिया है (वही साफ-साफ बताते हैं) अर्थात् कर्म के प्रवेश के द्वाररूप प्राणातिपात आदि आश्रव जिसके नष्ट हो गये हैं, वही पुरुष समस्त दोषों से रहित शुद्ध धर्म का उपदेश करता है । वह धर्म कैसा है ? मोक्ष जाने का . कारणरूप सर्वविरतिनामक वह धर्म अनुपम तथा अद्वितीय है || २४|| - एवंभूतधर्मव्यतिरेकिणां दोषाभिधित्सयाऽऽह - - - जो पूर्वोक्त शुद्ध धर्म को नहीं मानते हैं, उन लोगों के दोष बताने के लिए शास्त्रकार कहते हैं तमेव अविजाणंता, अबुद्धा बुद्धमाणिणो । बुद्धा मोत्ति य मन्त्रंता, अंत एते समाहिए ।। २५ ।। छाया - तमेवाविजानाना अबुद्धाः बुद्धमानिनः । बुद्धाः स्मेति मन्यमाना अन्त एते समाधेः || अन्वयार्थ - ( तमेव अविजाणंता) उसी प्रतिपूर्ण धर्म को न जानते हुए ( अबुद्धा बुद्धमाणिणो ) अज्ञानी होकर भी अपने को ज्ञानी माननेवाले ( बुद्धा मोत्तिय मन्नंता ) “मैं ज्ञानी हूं" ऐसा माननेवाले ( एते समाहिए अंत) पुरुष समाधि से दूर हैं । भावार्थ- पूर्वोक्त शुद्ध धर्म को न जानते हुए, अविवेकी होकर भी अपने को विवेकी माननेवाले अन्यदर्शनी समाधि से दूर हैं । टीका - तमेवंभूतं शुद्धं परिपूर्णमनीदृशं धर्ममजानाना "अप्रबुद्धा" अविवेकिनः "पण्डितमानिनो" वयमेव प्रतिबुद्धा धर्मतत्त्वमित्येवं मन्यमाना भावसमाधेः - सम्यग्दर्शनाख्यादन्ते - पर्यन्तेऽतिदूरे वर्तन्त इति, ते च सर्वे परतीर्थिका द्रष्टव्या इति ॥ २५ ॥ ४८६ टीकार्थ - पूर्वोक्त परिपूर्ण, शुद्ध और अनुपम धर्म को न जाननेवाले अविवेकी पुरुष "हम ही धर्म के तत्त्व को जानते हैं" ऐसा मानते हैं परन्तु वे सम्यग्दर्शन आदि भावसमाधि से दूर हैं, उन सबों को परतीर्थी समझना चाहिए ||२५|| किमिति ते तीर्थिका भावमार्गरूपात्समाधेदूरे वर्तन्त इत्याशङ्कयाह वे अन्यतीर्थी भावमार्गरूप समाधि से क्यों दूर रहते हैं ? यह शङ्का करके शास्त्रकार समाधान देते हैंते य बीओदगं चेव, तमुद्दिस्सा य जं कडं । भोच्चा झाणं झियायंति, अखेयन्नाऽ [अ] समाहिया - ॥२६॥
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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