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________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते एकादशमध्ययने गाथा ६-७ अतरिंसु तरंतेगे, तरिस्संति अणागया । तं सोच्चा पडिवक्खामि, जंतवो तं सुणेह मे श्रीमार्गाध्ययनम् छाया - अतार्षुस्तरन्त्येके तरिष्यन्त्यनागताः । तं श्रुत्वा प्रतिवक्ष्यामि, जन्तवस्तं शृणुत मे ॥ अन्वयार्थ - ( अतरिंसु ) इस मार्ग का आश्रय लेकर भूतकाल में बहुत लोगो ने संसार सागर को पार किया है । (तरंगे ) तथा कोई वर्तमान काल में भी पार करते हैं (अणागया तरिस्संति) एवं भविष्यकाल में भी बहुत से संसार को पार करेंगे। (तं सोच्चा पडिवक्खामि ) उस मार्ग को मैं भगवान् महावीर स्वामी से सुना हुआ आपको कहूंगा (जंतवो तं सुणेह मे) हे प्राणियों । वह मार्ग आप मुझ से सुनें । ॥६॥ भावार्थ - श्री सुधर्मास्वामी अपने शिष्य वर्ग से कहते हैं कि तीर्थकर के बताये हुए मार्ग से चलकर पूर्वकाल में बहुत जीवों ने संसार सागर को पार किया है तथा वर्तमान में भी करते हैं और भविष्य में भी करेंगे। वह मार्ग मैंने तीर्थकर से सुन रखा और आप लोगो को सुनने की इच्छा है, इसलिए मैं उस मार्ग का वर्णन करता हूं, आप उसे सुनें। टीका यं मार्गं पूर्वं महापुरुषाचीर्णमव्यभिचारिणमाश्रित्य पूर्वस्मिन्ननादिके काले बहवोऽनन्ताः सत्त्वा अशेषकर्मकचवरविप्रमुक्ता भवौघं - संसारम् 1" अतार्षुः " तीर्णवन्तः, साम्प्रतमप्येके समग्रसामग्रीका: संख्येयाः सत्त्वास्तरन्ति, महाविदेहादौ सर्वदा सिद्धिसद्भावाद्वर्तमानत्वं न विरुध्यते, तथाऽनागते च काले अपर्यवसानात्मकेऽनन्ता एव जीवास्तरिष्यन्ति । तदेवं कालत्रयेऽपि संसारसमुद्रोत्तारकं मोक्षगमनैककारणं प्रशस्तं भावमार्गमुत्पन्नदिव्यज्ञानैस्तीर्थकृद्भिरुपदिष्टं तं चाहं सम्यक् श्रुत्वाऽवधार्य च युष्माकं शुश्रूषूणां "प्रतिवक्ष्यामि " प्रतिपादयिष्यामि, सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिनं निश्रीकृत्यान्येषा जन्तूनां कथयतीत्येतद्दर्शयितुमाह - हे जन्तवोऽभिमुखीभूय तं चारित्रमार्गं मम कथयतः शृणुत यूयं परमार्थकथनेऽत्यन्तमादरोत्पादनार्थमेवमुपन्यास इति ||६|| टीकार्थ - महापुरुषों से आचरण किये हुए, अवश्य मोक्ष देनेवाले जिस मार्ग को सेवन करके पूर्व में अनादि काल में अनन्त जीवों ने समस्त कर्ममल को दूर कर संसार सागर को पार किया है तथा वर्तमान समय में भी संख्यात पुरुष संसार सागर को पार करते हैं । महाविदेह आदि क्षेत्रों में सदा सिद्धि प्राप्त होती है, इसलिए वर्तमान काल में मोक्ष कहना शास्त्रविरुद्ध नहीं है । तथा अनागत अनन्त काल में अनन्त जीव, इस मार्ग के द्वारा संसार सागर को पार करेंगे । इस प्रकार यह मार्ग तीनों काल में संसार सागर से पार करानेवाला मोक्ष प्राप्ति का कारण तथा प्रशस्त भावमार्ग है। जिसको दिव्यज्ञान उत्पन्न हुआ था, ऐसे तीर्थङ्कर ने इसे कहा था। उस मार्ग को मैं अच्छी तरह सुनकर तथा आप लोगों की उसे सुनने की इच्छा जानकर कहूंगा । श्री सुधर्मास्वामी, जम्बूस्वामी का आश्रय लेकर समस्त जीवों से कहते हैं, यह दिखाने के लिए शास्त्रकार कहते हैं हे प्राणियों ! तुम सावधान होकर मेरे द्वारा कहे जाते हुए चारित्र मार्ग को सुनो। सच्ची बात कहने में सुधर्मास्वामी का अत्यन्त आदर है, और श्रोताओं में अत्यंत आदर उत्पन्न करवाते है, यह सूचित करने के लिए यहाँ इस प्रकार मीठे शब्दों से आरम्भ किया है ||६|| - ४७४ चारित्रमार्गस्य प्राणातिपातविरमणमूलत्वात्तस्य च तत्परिज्ञानपूर्वकत्वादतो जीवस्वरूपनिरूपणार्थमाह चारित्रमार्ग का मूलकारण प्राणातिपात (जीवहिंसा) से निवृत्ति है, वह जीवों का ज्ञान होने पर पालन की जा सकती है इसलिए शास्त्रकार जीवों का स्वरूप बताने के लिए कहते हैं। - पुढवीजीवा पुढो सत्ता, आउजीवा तहाऽगणी । वाउजीवा पुढो सत्ता, तणरुक्खा सबीयगा ॥७॥ छाया - पृथिवी जीवाः पृथक् सत्त्वाः, आपो जीवास्तथाऽग्निः । वायुजीवाः पृथक् सत्त्वास्तृणवृक्षसबीजगाः ॥ अन्वयार्थ - ( पुढवीजीवा पुढो सत्ता) पृथिवी या पृथिवी के आश्रित जीव भिन्न भिन्न जीव है। ( आउजीवा तहाऽगणी) तथा जल और 1. समासान्तागमेत्यादिनेटोऽनित्यत्वं ।
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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