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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते एकादशमध्ययने गाथा ५ श्रीमार्गाध्ययनम् पुनरपि मार्गाभिष्टवं कुर्वन्सुधर्मस्वाम्याह - मैं क्रमशः मोक्षमार्ग को जिस प्रकार बताता हूं, उसे तुम सुनो - अणुपुव्वेण महाघोरं, कासवेण पवेइयं । जमादाय इओ पुव्वं, समुदं ववहारिणो।।५।। छाया - भानुपूर्व्या महाघोरं, काश्यपेन प्रवेदितम् । यमादायेतः पूर्व समुद्रं व्यवहारिणः ॥ अन्वयार्थ - (कासवेण पवेइयं) काश्यपगोत्री भगवान् महावीर स्वामी का कहा हुआ (महाघोरं) अति कठिन मार्ग को (अणुपुव्वेण) मैं क्रमशः बताता हूँ। (समुद्दे ववहारिणो) जैसे व्यवहार करनेवाले पुरुष समुद्र को पार करते हैं (इओ पुव्वं जमादाय) इसी तरह इस मार्ग का आश्रय लेकर आज से पहले बहुत लोग संसार सागर को पार कर चुके हैं। भावार्थ - श्री सुधर्मास्वामी, अपने शिष्य वर्ग से कहते हैं कि - मैं भगवान् महावीर स्वामी का कहा हुआ मार्ग क्रमशः बताता हूँ, तुम उसे सुनो । जैसे व्यवहार (व्यापार) करनेवाले पुरुष समुद्र को पार करते हैं, इसी तरह इस मार्ग का आश्रय लेकर बहुत जीवों ने संसार को पार किया है। टीका - यथाऽहम् "अनुपूर्वेण" अनुपरिपाटया कथयामि तथा शृणुत, यदिवा यथा चानुपूर्व्या सामग्र्या वा मार्गोऽवाप्यते तच्छृणुत, तद्यथा - 1"पढमिल्लुगाण उदए" इत्यादि तावद्यावत् 2"बारसविहे कसाए खविए उवसामिए व जोगेहिं । लब्भइ चरित्तलंभो" इत्यादि, तथा 3 "चत्तारि परमंगाणी"त्यादि । किंभूतं मागं ?, तमेव विशिनष्टि - कापुरुषैः संग्रामप्रवेशवत् दुरध्यवसेयत्वात् "महाघोरं" महाभयानकं "काश्यपो" महावीरवर्धमानस्वामी तेन "प्रवेदितं" प्रणीतं मागं कथयिष्यामीति, अनेन स्वमनीषिकापरिहारमाह, यं शुद्धं मार्गम् "उपादाय" गृहीत्वा "इत" इति सन्मार्गोपादानात् "पूर्वम्" आदावेवानुष्ठितत्वाद्दुस्तरं संसारं महापुरुषास्तरन्ति, अस्मिन्नेवार्थे दृष्टान्तमाह - व्यवहारः- पण्यक्रयविक्रयलक्षणो विद्यते येषां ते व्यवहारिणः - सांयात्रिकाः, यथा ते विशिष्टलाभार्थिनः किञ्चिन्नगरं यियासवो यानपात्रेण दुस्तरमपि समुद्रं तरन्ति एवं साधवोऽप्यात्यन्तिकैकान्तिकाबाधसुखैषिणः सम्यग्दर्शनादिना मार्गेण मोक्षं जिगमिषवो दुस्तरं भवौघं तरन्तीति ॥५॥ टीकार्थ - अथवा जिस सामग्री से मोक्षमार्ग की प्राप्ति होती है, उसे आप सुनें । चार कषायों के उदय होने पर जीव को सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं होती है, इस प्रकार बारह प्रकार के कषायों के क्षय या उपशम करने पर जीव को चारित्र की प्राप्ति होती है । तथा मनुष्य जन्म, धर्म प्राप्ति का उपदेश, अनुकूल श्रद्धा और चारित्र पालने की शक्ति, ये चार बातें सम्पूर्ण रूप से मिलें तो मोक्ष की प्राप्ति हो । (प्रश्न) वह मार्ग कैसा है ? । (उत्तर) जैसे कायर पुरुष का युद्ध में प्रवेश करना भयदायक होता है, इसी तरह अल्प शक्तिवाले पुरुष के लिए यह मार्ग महा भयदायक है । भगवान् महावीर स्वामी ने यह मार्ग कहा है, इसे मैं आप को बताता हूं। इससे यह सूचना दी जाती है कि - यह भगवान् महावीर स्वामी ही कहते हैं, मैं अपनी कल्पना से नहीं कहता हूं। जो मार्ग मैं बताऊंगा उस शुद्ध मार्ग को स्वीकार कर सरल मार्ग मिलने के कारण उस मार्ग से चलकर पहले दुस्तर संसार सागर को महापुरुषों ने पार किया है । इस विषय में दृष्टान्त देते हैं - खरीद, विक्री को व्यवहार कहते हैं और जो व्यवहार करते हैं, उनको व्यवहारी कहते हैं । वे अधिक लाभ पाने के लिए किसी नगर को जाते हुए जैसे जहाज पर चढ़कर दुस्तर समुद्र को पार करते हैं, इसी तरह अनन्त और बाधा रहित सत्य सुख की इच्छा करनेवाले साधु सम्यग्दर्शन आदि मार्ग के द्वारा मोक्ष जाना चाहते हुए दुस्तर संसार सागर को पार करते हैं ॥५॥ मार्गविशेषणायाह - अब शास्त्रकार मार्ग की विशिष्टता बताने के लिए कहते हैं - 1. प्राथमिकानामुदये । 2. द्वादशविधेषु कषायेषु क्षपितेषूपशमितेषु वा योगैः । लभते चारित्रलाभं ।। 3. चत्वारि परमङ्गानि ।4. भवत इति गम्यं। ४७३
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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