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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते एकादशमध्ययने गाथा १ श्रीमार्गाध्ययनम् सम्पूर्ण सम्यग्दर्शन आदि मोक्ष के मार्ग हैं, तथापि अलग-अलग और इकट्ठे जो इन्हें मोक्षमार्ग कहा है, वह प्रधान तथा अप्रधानरूप से कहा है, इसलिए दोष नहीं हैं (८) सुख के कारण को सुख कहते हैं, उपशम श्रेणि में अपूर्वकरण, अनिवृत्तिबादर और सूक्ष्मसम्पराय इन तीन गुण स्थानों में अर्थात् ८ ९ १० | गुणस्थानों में क्रोध आदि पतला हो जाने से आत्मा में सुख शान्ति का अनुभव होता है । अतः इसे सुख कहते हैं। (९) जो मोक्षमार्ग का हितकर है उसे पथ्य कहते हैं, वह क्षपक श्रेणिके आठवाँ नवाँ और दशम गुण स्थान जानने चाहिए क्योंकि इनमें क्रोध आदि के क्षय होने से अधिक शान्ति अनुभव होती है और मोक्ष के लिए अत्यन्त गुणकारी होता है । (१०) जिसमें मोह सर्वथा शान्त हो जाता है, उस उपशम श्रेणि के अन्तिम स्थान यानी एकादश गुणस्थान को श्रेय कहते हैं । (११) जो संसार की निवृत्ति का कारण है, उसे निर्वृत्ति कहते है, वह क्षीण मोहावस्था है, क्योंकि मोह के सर्वथा नाश हो जाने से अवश्य संसार से छुटकारा हो जाता है (१२) चार प्रकार के घाती कर्मों का नाश हो जाने से जिसमें केवलज्ञान की प्राप्ति होती है, उस अवस्था को निर्वाण कहते हैं । (१३) एवं मोक्ष पद को प्राप्त करानेवाला जो शैलेशी अवस्था की प्राप्तिरूप चतुर्दश गुणस्थान है, उसे शिव कहते हैं । ये पूर्वोक्त सभी मोक्ष के नाम परस्पर कुछ भेद रखते हैं, इसलिए इनकी अलग-अलग व्याख्या की गयी है अथवा ये मोक्षमार्ग के सभी पर्याय शब्द होने के कारण एकार्थक हैं ॥१०७११५ ॥ नाम निक्षेप समाप्त हुआ अब सूत्रानुगम में अस्खलित आदि गुणों के साथ सूत्र का उच्चारण करना चाहिए, वह सूत्र यह है
कयरे मग्गे अक्खाए, माहणेणं मईमता ?
जं मग्गं उज्जु पावित्ता, ओहं तरति दुत्तरं
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छाया कतरो मार्ग आख्यातो माहनेन मतिमता । यं मार्गमृनुं प्राप्य, ओघं तरति दुस्तरम् ॥
अन्वयार्थ - (मईमता माहणेणं कयरे मग्गे अक्खाए) केवलज्ञानी, अहिंसा के उपदेशक भगवान् महावीर स्वामी ने कौन सा मोक्षमार्ग कहा है ? । (जं उज्जु मग्गं पावित्ता दुत्तरं ओहं तरति ) जिस सरल मार्ग को पाकर जीव दुस्तर संसार को पार करता है ।
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भावार्थ - अहिंसा के उपदेशक केवलज्ञानी भगवान् महावीर स्वामी ने मोक्ष का मार्ग कौन - सा बताया है, जिसको प्राप्तकर जीव संसार सागर से पार होता है ।
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टीका विचित्रत्वात्त्रिकालविषयत्वाच्च सूत्रस्यागामुकं प्रच्छकमाश्रित्य सूत्रमिदं प्रवृत्तम्, अतो जम्बूस्वामी सुधर्मस्वामिनमिदमाह, तद्यथा - "कतरः " किंभूतो "मार्गः " अपवर्गावाप्तिसमर्थोऽस्यां त्रिलोक्याम् "आख्यातः” प्रतिपादितो भगवता त्रैलोक्योद्धरणसमर्थेनैकान्तहितैषिणा, मा हनेत्येवमुपदेशप्रवृत्तिर्यस्यासौ माहनः - तीर्थकृत्तेन, तमेव विशिनष्टि - मतिः - लोकालोकान्तर्गतसूक्ष्मव्यवहितविप्रकृष्टातीतानागतवर्तमानपदार्थाविर्भाविका केवलज्ञानाख्या यस्यास्त्यसौ मतिमांस्तेन यं प्रशस्तं भावमार्गं मोक्षगमनं प्रति "ऋजुं" प्रगुणं यथावस्थितपदार्थस्वरूपनिरूपणद्वारेणावक्रं सामान्यविशेषनित्यानित्यादिस्याद्वादसमाश्रयणात्, तदेवंभूतं मार्गं ज्ञानदर्शनतपश्चारित्रात्मकं "प्राप्य" लब्ध्वा संसारोदरविवरवर्ती प्राणी समग्रसामग्रीकः 'ओघ' ' मिति भवौघं संसारसमुद्रं तरत्यत्यन्तदुस्तरं तदुत्तरणसामग्र्या एव दुष्प्रापत्वात्,
तदुक्तम्
'माणुस्सखेत्तजाईकुलरूवारोगमाउयं बुद्धी । सवणोग्गहसद्धासअमो य लोयंमि दुलहाई ||१||
इत्यादि ॥
टीकार्थ सूत्र की रचना विचित्र होती है तथा तीनो कालों को दृष्टि में रखकर सूत्र की रचना होती है इसलिए भविष्य काल के प्रश्नकर्ता का आश्रय लेकर इस सूत्र की रचना हुई है, अतः जम्बूस्वामी श्री सुधर्मास्वामी से पूछते हैं कि- हे भगवन् ! तीन लोक का उद्धार करने में समर्थ, सबके एकान्त हितैषी तथा जीवहिंसा न करने 1. मानुष्यं क्षेत्रं जातिः कुलं रूपमारोग्यमायुः बुद्धिः श्रवणमवग्रहः श्रद्धा संयमच लोके दुर्लभानि ||१||