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________________ सूत्रकृताने भाषानुवादसहिते एकादशमध्ययने प्रस्तावना श्रीमार्गाध्ययनम् से भरा हुआ है । एवं दूसरा मार्ग चोर आदि न होने से क्षेम तो अवश्य है परन्तु पत्थरों के टुकडे पर्वत, नदी, कण्टक और सैंकडों गर्तो से युक्त होने के कारण क्षेमरूप नहीं है। तीसरा मार्ग चोर आदि से युक्त होने के कारण क्षेम तो नहीं है परन्तु पत्थर के टुकडे आदि न होने से क्षेमरूप है । तथा चौथा मार्ग न तो क्षेम ही है और न क्षेमरूप ही है क्योंकि उसमें चोर, सिंह और व्याघ्र आदि का भय है और गर्त, पाषाण तथा नीचा ऊंचा इत्यादि दोषों से भी युक्त है । इसी तरह भाव मार्ग के विषय में भी समझना चाहिए। जो साधु ज्ञान आदि से युक्त तथा द्रव्यलिङ्ग से भी युक्त है, वह क्षेम तथा क्षेमरूप प्रथम भङ्ग का स्वामी है (१) दूसरा वह है, जिसमें ज्ञान आदि गुण तो विद्यमान है परन्तु कारणवश द्रव्यलिङ्ग को छोड़ रखा है, वह क्षेम तथा अक्षेमरूप दूसरे भङ्ग का धनी है। (२) तीसरे भङ्ग में निन्हव है (३) और गृहस्थ तथा परतीर्थी चौथे भङ्ग में है । (४) इसी रीति से ये चार भङ्ग मार्ग आदि में भी जानने चाहिए तथा आदि शब्द से दूसरी जगह समाधि आदि में भी जानने चाहिए । अब सम्यक् और मिथ्यामार्ग का स्वरूप बताने के लिए नियुक्तिकार कहते हैं सम्यग् ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप तीन प्रकार का भावमार्ग सम्यग्दृष्टि तीर्थंकर और गणधर आदि ने कहा है अथवा वस्तु का यथार्थ स्वरूप बताने के कारण ये तीन भावमार्ग तीर्थङ्कर आदि ने कहे हैं । तथा उन्होंने इनका आचरण भी किया है । इससे विपरीत चरक और परिव्राजक आदि से सेवन किया जानेवाला मार्ग मिथ्यामार्ग एवं अप्रशस्त मार्ग है । वह अप्रशस्तमार्ग दुर्गति फल देनेवाला है, यह तु शब्द बताता है । छः काय के जीवों का घात करनेवाले जो पार्श्वस्थ आदि स्वयूथिक हैं, वे भी कुमार्ग में ही जाते हैं, यह नियुक्तिकार बताते हैं । - जो धर्म में ढीले, शीतल विहारी हैं तथा ऋद्धि, रस, सुख और मान बड़ाई में आसक्त गुरुकर्मी हैं तथा जो आधाकर्मी आहार का उपभोग करके छः काय के जीवों का घात करते हैं और अपने से आचरण किये जाते हुए मार्ग का उपदेश दूसरे को देते हैं, जैसे कि - " धर्म साधन का मुख्य कारण यह शरीर ही है, यह मानकर तथा काल और संहनन आदि की हानि समझकर आधाकर्मी आहार खाने में भी दोष नहीं है" ऐसे मार्ग का उपदेश करनेवाला परतीर्थी कुमार्ग का सेवन करते हैं तथा जैन साधु भी ऐसा करनेवाला कुमार्गी ही है। ऐसा आचरण करनेवाला जैन साधु भी जबकि कुमार्गी है तब परतीर्थियों की तो बात ही क्या है ? अब प्रशस्तशास्त्र की रचना के द्वारा सच्चा साधु मार्ग बताने के लिए नियुक्तिकार कहते हैं बाह्य और आभ्यन्तर बारह भेदवाला तप है तथा पाँच आश्रवों से विरमणरूप सत्रह भेदवाला संयम है, ये तप और संयम जिन में प्रधान हैं तथा अढारह हजार शील के भेदों को पालन करनेवाले जो गुणवान् पुरुष हैं, वे उत्तम साधु हैं। वे साधु जीव आदि नवतत्त्वों का सच्चा स्वरूप बतलाते हैं । उनका बताया हुआ मार्ग समस्त प्राणियों का रक्षक होने के कारण अथवा सब को उत्तम उपदेश देने के कारण हितकर है । वही मार्ग सच्चा मार्ग है। सच्चे मार्ग के रहस्य को जाननेवाले पुरुष उसी मार्ग को अविपरीत कहते हैं । - - अब सत्यमार्ग के एकार्थक शब्दों को बताते हैं (१) जो किसी देश से दूसरे इष्ट देश को पहुँचाता है, उसे "पंथ" कहते हैं । वह यहां भावमार्ग के प्रकरण में सम्यक्त्व की प्राप्ति रूप समझना चाहिए (२) तथा पहले से आत्मा जिसमें अधिक निर्मल होता है, उसे मार्ग कहते हैं, वह सम्यग्ज्ञान की प्राप्तिरूप समझना चाहिए (३) जिससे विशिष्ट स्थान की अवश्य प्राप्ति होती है, वह "न्याय" है । वह यहाँ सम्यक्त्व चारित्र की प्राप्ति समझनी चाहिए । उत्तम पुरुषों का यह न्याय है कि वे सम्यग्दर्शन और ज्ञान को प्राप्त करके उनके फलस्वरूप सम्यक्चारित्र को उसके साथ मिला देते हैं, अतः सम्यक्चारित्र को यहां "न्याय" कहते हैं (४) सम्यग्दर्शन और ज्ञान की एक साथ प्राप्ति को विधी कहते हैं (५) धैर्य को धृति कहते हैं । सम्यग्दर्शन होने पर चारित्र की प्राप्ति जो हुई है, उसको स्थिर रखने के लिए माषतुष मुनि की तरह विशिष्ट ज्ञान न होने की दशा में धैर्य रखना चाहिए (६) जिससे सुगति की प्राप्ति होती है, उसे सुगति कहते हैं, वह ज्ञान तथा चारित्र है क्योंकि ज्ञान और क्रिया से मोक्ष होता है। इस न्याय से सुगति शब्द से ज्ञान और क्रिया कहे जाते हैं, दर्शन तो ज्ञान का ही भेद है, इसलिए ज्ञान में ही उसका अन्तर्भाव समझना चाहिए (७) जो मुक्ति प्राप्ति का कारण है, उसे हित कहते हैं, वह सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र हैं । यद्यपि ४६९
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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