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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते एकादशमध्ययने प्रस्तावना
श्रीमार्गाध्ययनम् "सुगति"- रिति शोभना गतिरस्मात् ज्ञानाच्चारित्राच्चेति सुगतिः, "ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्ष' इति न्यायात्सुगतिशब्देन ज्ञानक्रिये अभिधीयेते, दर्शनस्य तु ज्ञानविशेषत्वादत्रैवान्तर्भावोऽवगन्तव्यः ६. तथा “हित" मिति परमार्थतो मुक्त्यवाप्तिस्तत्कारणं वा हितं, तच्च सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राख्यमवगन्तव्यमिति ७. अत्र च संपूर्णानां सम्यग्दर्शनादीनां मोक्षमार्गत्वे सति यद्वयस्तसमस्तानां मोक्षमार्गत्वेनोपन्यासः स प्रधानोपसर्जनविवक्षया न दोषायेति, तथा "सुख" मिति सुखहेतुत्वात्सुखम् उपशमश्रेण्यामुपशामकं प्रत्यपूर्वकरणानिवृत्तिबादरसूक्ष्मसंपरायरूपा गुणत्रयावस्था ८. तथा "पथ्य" मिति पथि - मोक्षमार्गे हितं पथ्यं, तच्च क्षपकश्रेण्यां पूर्वोक्तं गुणत्रयं ९. तथा "श्रेय" इत्युपशमश्रेणिमस्तकावस्था, उपशान्तसर्वमोहावस्थेत्यर्थः १०. तथा निर्वृतिहेतुत्वानिवृतिः क्षीणमोहावस्थेत्यर्थः, मोहनीयविनाशेऽवश्यं निर्वृतिसद्धावादितिभावः ११. तथा "निर्वाण'मिति घनघातिकर्मचतुष्टयक्षयेण केवलज्ञानावाप्तिः १२. तथा "शिव" मोक्षपदं तत्करणशीलं शैलेश्यवस्थागमनमिति १३. एवमेतानि मोक्षमार्गत्वेन किञ्चिद्भेदाद् भेदेन व्याख्यातान्यभिधानानि, यदिवैते पर्यायशब्दा एकार्थिका मोक्षमार्गस्येति ॥११२-११५।। गतो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, तदनन्तरं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारयितव्यं, तच्चेदम्
टीकार्थ - नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, और काल, भाव भेद से मार्ग के छ: निक्षेप हैं। इनमें नाम, स्थापना को सुगम होने के कारण छोड़कर ज्ञशरीर और भव्य शरीर से व्यतिरिक्त द्रव्यमार्ग बताया जाता है । कीचड़ आदि के भय से जहाँ काठ का फलक बीछाकर मार्ग बनाया गया है, उसे फलकमार्ग कहते हैं तथा जहाँ लता को पकड़कर चलते हैं, वह लतामार्ग है । जहाँ झूला खाकर ऊँची जमीन को उल्लंघन करते हैं, उसे आन्दोलनमार्ग कहते हैं। जहाँ जल आदि में वेतकी लता को पकड़कर नदी को पार करते हैं, वह वेत्रमार्ग है जैसे चारुदत्त वेत्र लता को पकड़कर वेत्रवती नदी को पारकर दूसरे तटपर चला गया था । जहाँ रस्सी की सहायता से अत्यन्त ऊँचे स्थान को उल्लंघन करते हैं, उसे रज्जुमार्ग कहते हैं । जहाँ किसी यान यानी सवारी के द्वारा जाते हैं, उसे दवनमार्ग कहते हैं । जहाँ गुफा के आकार के बने हुए बिल के द्वारा जाते हैं, उसे बिलमार्ग कहते हैं । जिस मार्ग में पाश यानी पक्षि आदि को फसाँने के लिए जाल बिछा हुआ है, उसे पाशमार्ग कहते हैं । जिस प्रदेश में अधिक रेती होने के कारण मार्ग जानने के लिए कील गाडे जाते हैं, और उस कील को देखकर लोग रास्ता जानते हैं, उसे कीलमार्ग कहते हैं, ऐसा मार्ग मरुदेश में होता है । [वर्तमान में ६'रि पालित संघों में चूना डालकर मार्ग दर्शाया जाता है।] जहाँ बकरे पर चढकर जाते हैं, उसे अजमार्ग कहते हैं, जैसे चारुदत्त सुवर्ण भूमि में बकरे पर चढ़कर गया था। जहाँ भारुण्ड आदि पक्षियों पर चढ़कर दूसरे देश में जाते हैं, उसे पक्षिमार्ग कहते हैं । जहां छत्ता के बिना नहीं जा सकते, उस मार्ग को छत्रमार्ग कहते हैं। जहां नाव आदि के द्वारा जाते हैं, वह जलमार्ग है । विद्याधर आदि देवताओं के मार्ग को आकाशमार्ग कहते हैं । ये सभी फलकमार्ग आदि मार्ग द्रव्यमार्ग जानने चाहिए ।
अब क्षेत्रमार्ग बताया जाता है - जो मार्ग, ग्राम, नगर तथा जिस प्रदेश में अथवा जिस शालिक्षेत्र आदि में जाता है अथवा जिस क्षेत्र में मार्ग की व्याख्या की जाती है, वह क्षेत्रमार्ग है । इसी तरह काल में भी जानना चाहिए । भाव मार्ग के विषय में विचार करने पर वह दो प्रकार का है, एक प्रशस्त और दूसरा अप्रशस्त । अब प्रशस्त और अप्रशस्त का भेद नियुक्तिकार बताते हैं - प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों ही भावमार्गों में प्रत्येक के तीन तीन भेद होते हैं। इनमें मिथ्यात्व, अविरति और अज्ञान ये अप्रशस्त भावमार्ग हैं और सम्यग्दर्शन, ज्ञान तथा चारित्र प्रशस्त भावमार्ग है । इन अप्रशस्त और प्रशस्त मार्गों का फल विचारना चाहिए - वह दो प्रकार का है जैसे किप्रशस्त भावमार्ग का फल सुगति है और अप्रशस्त का फल दुर्गति है । इस अध्ययन में सुगतिरूप फल देनेवाले प्रशस्त भाव मार्ग का ही वर्णन है । अब नियुक्तिकार दुर्गति फल देनेवाले अप्रशस्त भावमार्ग को बताने के लिए उसके कर्ताओं को बताते हैं - जिसका दुर्गति फल है, ऐसे मार्ग को बताने वाले प्रावादुकों के तीन सौ तीरसठ ३६३ भेद हैं । वे दुर्गतिरूप फलवाले मार्ग का उपदेशक इस कारण हैं कि उनकी दृष्टि मिथ्यात्व के कारण नष्ट हो गयी है, अत एव वे जीवादि तत्त्वों को विपरीत मानते हैं । इनकी संख्या इस प्रकार जाननी चाहिए। क्रियावादियों के १८० भेद है तथा अक्रियावादियों के ८४ भेद हैं एवं अज्ञानियों के ६७ भेद है और विनयवादियों के ३२ भेद है । इनका स्वरूप समवसरणाध्ययन में बताया जायगा ।
अब भङ्ग के द्वारा मार्ग बताने के लिए कहते है - एक मार्ग क्षेम है क्योंकि उसमें चोर, सिंह, और व्याघ्र आदि का उपद्रव नहीं है तथा वह क्षेमरूप भी है क्योंकि वह सम है तथा छाया, फूल, फल, वृक्ष और जलाशयों
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