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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते दशममध्ययने गाथा २१ श्रीसमाध्यध्ययनम् तरह बुद्धिमान् पुरुष धर्म का विचारकर पाप को दूर ही से छोड़ देवे । टीका - यथा "क्षुद्रमृगा" क्षुद्राटव्यपशवो हरिणजात्याद्याः "चरन्तः" अटव्यामटन्तः सर्वतो बिभ्यतः परिशङ्कमानाः सिंह, व्याघ्र वा आत्मोपद्रवकारिणं दूरेण परिहत्य "चरन्ति" "विहरन्ति, एवं "मेधावी" मर्यादावान्, तुर्विशेषणे, सुतरां धर्म "समीक्ष्य" पर्यालोच्य "पापं" कर्म असदनुष्ठानं दूरेण मनोवाक्कायकर्मभिः परिहत्य परि - समन्ताव्रजेत् संयमानुष्ठायी तपश्चारी च भवेदिति, दूरेण वा पापं - पापहेतुत्वात्सावद्यानुष्ठानं सिंहमिव मृगः स्वहितमिच्छन् परिवर्जयेत् - परित्यजेदिति ॥२०॥ अपिच - टीकार्थ - जैसे हरिण आदि छोटे - छोटे जङ्गली पशु पृथिवी पर विचरते हुए चारो तर्फ से डरकर अपना घात करनेवाले सिंह को दूर ही छोड़कर विचरते हैं, इसी तरह मर्यादा में स्थित बुद्धिमान् मुनि धर्म का विचारकर मन, वचन और काय से पाप को दूर ही छोड़कर संयम पालन और तप करे अथवा जैसे अपना कल्याण चाहनेवाला मृग, सिंह को दूर ही छोड़ देता है, इसी तरह कल्याणार्थी पुरुष पाप के कारणरूप सावध अनुष्ठान को ही त्याग देवे ॥२०॥ संबुज्झमाणे उ गरे मतीमं, पावाउ अप्पाण निवट्टएज्जा । हिंसप्पसूयाइं दुहाई मत्ता, वेराणुबंधीणि महब्भयाणि ॥२१॥ छाया - संबुध्यमानस्तु नरो मतिमान, पापात्वात्मानं निवर्तयेत् । ___ हिंसाप्रसूतानि दुःखानि मत्वा वैरानुबन्धीनि महाभयानि ॥ अन्वयार्थ - (संबुज्झमाणे मतीमं णरे) धर्म को समझनेवाला बुद्धिमान् पुरुष (पावाउ अप्पाण निवट्टएज्जा) पाप कर्म से अपने को निवृत्त करे । (हिंसप्पसूयाई) हिंसा से उत्पन्न कर्म (वेराणुबंधीणि) वैर उत्पन्न करते हैं (महब्मयाणि) वे महाभय उत्पन्न करते हैं (दुहाई) तथा दुःख देते हैं (मत्ता) यह मानकर हिंसा न करे । ___ भावार्थ - धर्म के तत्त्व को समझनेवाला पुरुष पाप से अलग रहे । हिंसा से उत्पन्न कर्म वैर उत्पन्न करनेवाले महाभयदायी तथा दुःख उत्पन्न करते हैं, यह जानकर हिंसा न करे । टीका - मननं मतिः सा शोभना यस्यास्त्यसौ मतिमान्, प्रशंसायां मतुप्, तदेवं शोभनमतियुक्तो मुमुक्षुर्नरः सम्यक्श्रुतचारित्राख्यं धर्म भावसमाधि वा "बुध्यमानस्तु" विहितानुष्ठाने प्रवृत्तिं कुर्वाणस्तु पूर्वं तावनिषिद्धाचरणानिवर्तेत अतस्तत् दर्शयति - "पापात्" हिंसानृतादिरूपात्कर्मण आत्मानं निवर्तयेत्, निदानोच्छेदेन हि निदानिन उच्छेदो भवतीत्यतोऽशेषकर्मक्षयमिच्छन्नादावेव आश्रवद्वाराणि निरुन्थ्यादित्यभिप्रायः, किं चान्यत् - हिंसा - प्राणिव्यपरोपणं तया ततो वा प्रसूतानि - जातानि यान्यशुभानि कर्माणि तान्यत्यन्तं नरकादिषु यातनास्थानेषु दुःखानि - दुःखोत्पादकानि वर्तन्ते, तथा वैरमनुबध्नन्ति तच्छीलानि च वैरानुबन्धीनि - जन्मशतसहस्रदुर्मोचानि, अत एव महद्धयं येभ्यः सकाशात्तानि महाभयानीति, एवं च मत्वा मतिमानात्मानं पापानिवर्तयेदिति, पाठान्तरं वा "निव्वाणभूए व परिव्वएज्जा" अस्यायमर्थः - यथा हि निर्वृतो निर्व्यापारत्वात्कस्यचिदुपघाते न वर्तते एवं साधुरपि सावधानुष्ठानरहितः परि - समन्ताद् व्रजेदिति ॥२१॥ तथा - टीकार्थ - जिसकी मति शोभन यानी प्रशंसा के योग्य है, उसे मतिमान् कहते हैं (मतिमान् पद में प्रशंसा अर्थ में मतुप् प्रत्यय हुआ है) सुन्दरमति से युक्त, मोक्ष की इच्छा करनेवाला मनुष्य, सम्यक् श्रुत और चारित्ररूप धर्म को अथवा भावसमाधि को समझकर शास्त्रविहित कर्मो में प्रवृत्ति करता हुआ पहले निषिद्ध कर्मो का त्याग करे, यह शास्त्रकार दिखाते हैं - मतिमान् पुरुष हिंसा, झूठ आदि कर्मो से पहले अपने को अलग करे क्योंकि कारण के नाश से ही कार्य का नाश होता है। अतः समस्त कर्मों का क्षय चाहता हुआ पुरुष आश्रवद्वारों को रोके यह शास्त्रकार का आशय है । प्राणियों की हिंसा से जो पाप उत्पन्न होता है, वह जीव को नरक आदि महा ४६२
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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