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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते दशममध्ययने गाथा १९-२० श्रीसमाध्यध्ययनम् जहाहि वित्तं पसवो य सव्वं, जे बंधवा जे य पिया य मित्ता । लालप्पती सेऽवि य एइ मोहं, अन्ने जणा तंसि हरंति वित्तं ॥१९॥ छाया - जहाहि वित्तय पयूँश्च सर्वान, ये बान्धवा ये च प्रियाश्च मित्राणि । लालप्यते सोऽपि चेति मोहमव्ये जनास्तस्य हरन्ति वित्तम् ॥ अन्वयार्थ - (वित्तं सव्वं पसवो य जहाहि) धन तथा सब पशु आदि को छोड़ो। (जे बंधवा जे य पिया य मित्ता) तथा जो बान्धव और प्रिय मित्र हैं, वे वस्तुतः कुछ भी उपकार नहीं करते हैं (सेऽवि य लालप्पती मोहं य एइ) तथापि मनुष्य इनके लिए रोता है और मोह को प्राप्त होता है । (अन्ने जणा तंसि वित्तं हरंति) उसके मरनेपर दूसरे लोग उसका धन हर लेते हैं। भावार्थ - धन और पशु आदि सब पदार्थों को तो छोड़ो परंतु बान्धव तथा प्रियमित्र भी कुछ भी उपकार नहीं करते तथापि मनुष्य इनके लिए रोता है और मोह को प्राप्त होता है । जब वह प्राणी मर जाता है । तब दूसरे लोग बांधवादि उसका कमाया हुआ धन हर लेते हैं । टीका - “वित्तं" द्रव्यजातं तथा "पशवो" गोमहिष्यादयस्तान् सर्वान् “जहाहि" परित्यज - तेषु ममत्वं मा कृथाः, ये "बान्धवा" मातापित्रादयः श्वसुरादयश्च पूर्वापरसंस्तुता ये च प्रिया "मित्राणि" सहपांसुक्रीडितादयस्ते एते मातापित्रादयो न किञ्चित्तस्य परमार्थतः कुर्वन्ति, सोऽपि च वित्तपशुबान्धवमित्रार्थी अत्यर्थं पुनः पुनर्वा लपति लालप्यते, तद्यथा - हे मातः ! हे पितरित्येवं तदर्थं शोकाकुलः प्रलपति, तदर्जनपरश्च मोहमुपैति, रूपवानपि कण्डरीकवत् धनवानपि मम्मणवणिग्वत् धान्यवानपि तिलक श्रेष्ठिवद् इत्येवमसावप्यसमाधिमान् मुह्यते (ति), यच्च तेन महता क्लेशेनापरप्राण्युपमर्दैनोपार्जित्तं वित्तं तदन्ये जनाः "से" तस्यापहरन्ति जीवत एव मृतस्य वा, तस्य च क्लेश एव केवलं पापबन्धश्चेत्येवं मत्वा पापानि कर्माणि परित्यजेत्तपश्चरेदिति ॥१९॥ टीकार्थ - द्रव्य समूह को तथा गाय, भैस आदि पशुओं को त्याग दो । इनमें ममत्व मत रखो । पहले के परिचित जो माता - पिता आदि हैं तथा पीछे के परिचित जो श्वशूर आदि हैं, ये बान्धव गण, तथा साथ में धूलिक्रीड़ा किये हुए मित्रगण वस्तुतः मनुष्य का कुछ भी उपकार नहीं करते हैं तथापि मनुष्य, धन, पशु, बान्धव और मित्र के लिए बार - बार रोता है तथा हे मातः हे पितः इत्यादि कहता हुआ उनके लिए शोकाकुल होकर प्रलाप करता है एवं इनको सुख देने के लिए धन का उपार्जन करता हुआ मोह को प्राप्त होता है । कुण्डरीक के समान रूपवान् तथा मम्मण वणिक की तरह धनवान् और तिलक सेठ की तरह धान्यवान् पुरुष भी समाधि के बिना मोह को प्राप्त होता है, उसने प्राणियों की हिंसा तथा बहुत कष्ट करके जो धन कमाया है, उसे उसके जीते ही अथवा मर जाने पर दूसरे लोग हर लेते हैं, केवल उसको दुःख ही हाथ आता है और कर्मबन्ध होता है, यह जानकर मनुष्य को पापकर्म छोड़ देना चाहिए और तप करना चाहिए ॥१९॥ तपश्चरणोपायमधिकृत्याह - अब शास्त्रकार तप के उपाय के विषय में कहते हैं - सीहं जहा खुड्डमिगा चरंता, दूरे चरंती परिसंकमाणा। एवं तु मेहावि समिक्ख धम्म, दूरेण पावं परिवज्जएज्जा ॥२०॥ छाया - सिंह यथा क्षुद्रमृगाश्चरन्तो दूरे चरन्ति परिशङ्कमानाः । ___एवं तु मेधावी समीक्ष्य धर्म दूरेण पापं परिवर्जयेत् ॥ अन्वयार्थ - (चरंता खुड्डमिगा सिहं परिसंकमाणा) विचरते हुए छोटे मृग जैसे सिंह की शङ्का से (दूरे चरंती) दूर ही विचरते हैं (एवं तु मेहावि धम्म समिक्ख) इसी तरह बुद्धिमान् पुरुष धर्म का विचार कर (पावं दूरेण परिवज्जएज्जा) पाप को दूर से ही वर्जित करे। भावार्थ- जैसे पृथिवी पर विचरते हुए छोटे मृग मरण की शंका से सिंह को दूर ही छोड़कर विचरते हैं, इसी ४६१
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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