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सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते दशममध्ययने गाथा १८
छाया - आयुः क्षयं चैवाबुध्यमानः, ममत्ववान् स साहसकारिमन्दः । अहनि च रात्रौ च परितप्यमानः, अर्थेषु मूढोऽजरामर इव ॥
अन्वयार्थ - (आउक्खयं चेव अबुज्झमाणे) आरम्भ में आसक्त पुरुष, आयु का क्षय होना नहीं जानता है (ममाति से साहसकारि मंदे) किन्तु वह मूर्ख वस्तुओं पर ममता रखता हुआ पापकर्म करता है। ( अहो य राओ परितप्पमाणे) वह दिन रात चिन्ता में पड़ा रहता है (अट्ठेसु अजरामरेव्व मूढे) वह अपने को अजर, अमर समझता हुआ धन में आसक्त रहता है ।
भावार्थ - आरम्भ में आसक्त अज्ञानी जीव अपनी आयु का क्षय होना नहीं जानता है । वह वस्तुओं में ममता रखता हुआ पाप कर्म करने से नहीं डरता है । वह रात दिन धन की चिन्ता में पड़ा हुआ अजर अमर की तरह धन में आसक्त रहता है ।
टीका - आयुषो - जीवनलक्षणस्य क्षय आयुष्कक्षयस्तमारम्भप्रवृत्तः छिन्नहृदमत्स्यवदुदकक्षये सति अबुध्यमानोऽतीव "ममाइ" त्ति ममत्ववान् इदं मे अहमस्य स्वामीत्येवं स " मन्दः " अज्ञः साहसं कर्तुं शीलमस्येति साहसकारीति, तद्यथा - कश्चिद्वणिग् महता क्लेशेन महार्घाणि रत्नानि समासाद्योज्जयिन्या बहिरावासितः, स च राजचौरदायादभयाद्रात्रौ रत्नान्येवमेवं च प्रवेशयिष्यामीत्येवं पर्यालोचनाकुलो रजनीक्षयं न ज्ञातवान् अन्येव रत्नानि प्रवेशयन् राजपुरुषै रत्नेभ्यश्चयावित इति, एवमन्योऽपि किंकर्तव्यताकुलः स्वायुषः क्षयमबुध्यमानः परिग्रहेष्वारम्भेषु च प्रवर्तमानः साहसकारी स्यादिति, तथा कामभोगतृषितोऽह्नि रात्रौ च परि-समन्तात् द्रव्यार्थी परितप्यमानो मम्मणवणिग्वदार्तध्यायी कायेनापि क्लिश्यते, तथा चोक्तम् -
अजरामरवद्वालः, क्लिश्यते धनकाम्यया । शाश्वतं जीवितं चैव मन्यमानो धनानि च ॥१॥
श्रीसमाध्यध्ययनम्
तदेवमार्तध्यानोपहतः 1 " कइया वच्चइ सत्थो ? किं भंडं कत्थं कित्तिया भूमी त्यादि, तथा 2" उक्खणइ खणइ णिहणइ रतिं न सुयइ दियावि य ससंको" इत्यादिचित्तसंक्लेशात्सुष्ठु मूढोऽजरामरवणिग्वदजरामरवदात्मानं मन्यमानोऽपगतशुभाध्यवसायोऽहर्निशमारम्भे प्रवर्तत इति ||१८|| किञ्चान्यत् -
टीकार्थ - आरम्भ में आसक्त जीव अपनी आयु का क्षय होना नहीं जानता है, जैसे तालाब का बाँध टूट जाने पर उससे निकलते हुए पानी को मछली नहीं जानती है। वह मूर्ख जीव, यह वस्तु मेरी है और मैं इसका स्वामी हूँ । इस प्रकार वस्तुओं पर ममता करता हुआ साहस का कार्य करता है । इस विषय में एक बनिये का दृष्टान्त देते हैं = एक बनिया बहुत परिश्रम करके रत्न कमाकर उज्जयिनी पुरी के बाहर ठहरकर रात भर यह सोचता रहा कि " मेरे धन को राजा, चोर तथा भाई आदि न ले लें इसलिए धन को इस प्रकार रक्षित करके रखूं " ऐसी चिन्ता करते करते सारी रात बीत गयी परन्तु उसने रात का बीतना नहीं जाना पश्चात् वह दिन में ही अपने धन को किसी गुप्त स्थान में रखता हुआ राजपुरुषों से पकड़ लिया गया और सब धन राजपुरुषों ने ले लिया । इस बनिये ने जैसे चिन्ता में पड़कर रात का बीतना नहीं जाना था । इसी तरह प्राणिवर्ग धन की चिन्ता में पड़कर अपनी आयु का क्षय होना नहीं जानते हैं और परिग्रह तथा आरम्भ में आसक्त होकर साहस का कार्य (पाप) करते हैं । वे मम्मण बनिये की तरह काम - भोग के प्यासे होकर दिन रात द्रव्य के लिए तप्त होते हुए आर्त्तध्यान करके शरीर को भी क्लेश देते हैं । अत
एव कहा है कि
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अज्ञानी जीव अजर और अमर की तरह धन की कामना से क्लेश भोगता है, वह अपने जीवन तथा धन को शाश्वत (सदा रहनेवाला) मानता है ।
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इस प्रकार आर्त्तध्यान करता हुआ वह पुरुष चिन्ता करता है कि यह व्यापारियों का सार्थ कब निकलेगा इसमें कौन माल भरा है तथा कितना दूर जाना है ? । एवं वह कभी अपने धन की रक्षा करने के लिए पहाड़ आदि ऊंचे स्थानों को खनता है, कभी जमीन खोदता है, वह रात में सुख से नहीं सोता है तथा दिन में भी शङ्कित रहता है । इस प्रकार चित्त की पीड़ा से मूर्ख बना हुआ वह पुरुष अजरामर बनिये की तरह अथवा अपने को अजर अमर मानता हुआ शुभ विचार से रहित होकर दिन रात आरम्भ में पड़ा रहता है ||१८||
1. कदा व्रजति सार्थः किं भाण्डं क्व च कियती भूमिः ।।
2. उत्खनति खनति निहन्ति रात्रौ न स्वपिति दिवापि च सशङ्कः ||१||
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