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________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते दशममध्ययने गाथा १८ छाया पृथक् छन्दा इह मानवास्तु, क्रियाऽक्रियं पृथग्वादम् । जातस्य बालस्य प्रकृत्य देहं, प्रवर्धते वैरमसंयतस्य । अन्वयार्थ - ( इह माणवा उ पुढो छंदा) इस लोक में मनुष्यों की भिन्न- भिन्न रुचि होती है (किरियाकिरियं पुढो वायं) इसलिए कोई क्रियावाद और काई अक्रियावाद को मानते हैं (जायस्स बालस्स देहं पकुव्व) वे जन्मे हुए बालक के शरीर को काटकर अपना सुख उत्पन्न करते हैं । (असंजतस्स वेरं पवड्ढती) असंयत पुरुष का वैर बढ़ता है । भावार्थ - मनुष्यों की रुचि भिन्न -भिन्न होती है, इस कारण कोई क्रियावाद और कोई अक्रियावाद को मानते हैं तथा कोई जन्मे हुए बालक की देह काटकर अपना सुख उत्पन्न करते हैं, वस्तुतः असंयमी पुरुष का प्राणियों के साथ वैर बढ़ता है । - टीका पृथक् नाना छन्दः अभिप्राय येषां ते पृथक्छन्दा "इह" अस्मिन्मनुष्यलोके "मानवा" मनुष्याः, तुरवधारणे, तमेव नानाभिप्रायमाह क्रियाऽक्रिययोः पृथक्त्वेन क्रियावादमक्रियावादं च समाश्रिताः, तद्यथा क्रियैव फलदा पुंसां, न ज्ञानं फलदं मतम् । यतः स्त्रीभक्ष्यभोगज्ञो, न ज्ञानात्सुखितो भवेत् ||१|| इत्येवं क्रियैव फलदायित्वेनाभ्युपगता, क्रियावादमाश्रिताः, एवमेतद्विपर्ययेणाक्रियावादमाश्रिताः, एतयोश्चोत्तरत्र स्वरूपं न्यक्षेण वक्ष्यते, ते च नानाभिप्राया मानवाः क्रियाक्रियादिकं पृथग्वादमाश्रिता मोक्षहेतुं धर्ममजानाना आरम्भेषु सक्ता इन्द्रियवशगा रससातागौरवाभिलाषिण एतत्कुर्वन्ति, तद्यथा "जातस्य" उत्पन्नस्य "बालस्य" अज्ञस्य सदसद्विवेकविकलस्य सुखैषिणो "देहं " शरीरं "पकुव्व" त्ति खण्डशः कृत्वाऽऽत्मनः सुखमुत्पादयन्ति तदेवं परोपघातक्रियां कुर्वतोऽसंयतस्य कुतोऽप्यनिवृत्तस्य जन्मान्तरशतानुबन्धि वैरं परस्परोपमर्दकारि प्रकर्षेण वर्धते, पाठान्तरं जायाए बालस्स पगब्भणाए - "बालस्य" अज्ञस्य हिंसादिषु कर्मसु प्रवृत्तस्य निरनुकम्पस्य या जाता " प्रगल्भता " धाष्टयं तया वैरमेव प्रवर्धत इति सम्बन्धः ॥ १७॥ अपिच वा ― - श्रीसमाध्यध्ययनम् - - - टीकार्थ • इस मनुष्य लोक में मनुष्यों की रुचि भिन्न भिन्न होती है । तु शब्द अवधारणार्थक है । वही भिन्न-भिन्न रुचि शास्त्रकार बताते हैं क्रिया और अक्रिया में भिन्नता होने के कारण कोई क्रियावाद को और कोई अक्रियावाद को मानते हैं । क्रियावादी कहते हैं कि - - - पुरुष को क्रिया ही फल देती है, ज्ञान नहीं क्योंकि स्त्री और खाने की चीज तथा भोग की वस्तुओं को जाननेवाला पुरुष ज्ञान मात्र से सुखी नहीं होता है । आउक्खयं चेव अबुज्झमाणे, ममाति से साहसकारि मंदे । अहो य राओ परितप्पमाणे, अट्टेसु मूढे अजरामरेव्व इस प्रकार क्रियावादी क्रिया को ही फलदायी मानकर क्रियावाद का आश्रय लेते हैं । इससे विपरीत अक्रियावादी ज्ञान का समर्थन करते हुए क्रिया को निष्फल बताते हैं । इनका स्वरूप आगे चल कर बताया जायगा। कहने का आशय यह है कि नाना प्रकार की रुचिवाले मनुष्य अपनी अपनी रुचि के अनुसार कोई क्रियावाद और कोई अक्रियावाद का आश्रय लेकर मोक्ष का कारण धर्म को नहीं जानते हैं, वे आरम्भ में आसक्त तथा इन्द्रियवशीभूत होकर सुख और मान बड़ाई की इच्छा करते हुए यह कार्य करते हैं । वे सुख की इच्छा से भले और बुरे के विवेक से रहित तथा अज्ञानी तथा तुरंत जन्मे हुए और सुख की इच्छा करनेवाले बालक की देह को खण्डशः काटकर आनन्द मानते हैं । इस प्रकार दूसरे को पीड़ा देनेवाली क्रिया करनेवाला और किसी भी पाप से नहीं हटा हुआ असंयति जीव सैकडों जन्म तक चलनेवाला परस्पर के घात का कारण प्राणियों के साथ वैर बढ़ाता है । यहां “जायाए बालस्स पगब्भणाए" यह पाठान्तर पाया जाता है, इसका अर्थ यह है दयारहित तथा हिंसादि कार्य में प्रवृत्त अज्ञानी जीव की जो हिंसावाद में धृष्टता है, उससे उसका प्राणियों के साथ वैर ही बढ़ता है ||१७|| - ।।१८।। ४५९
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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