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________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते दशममध्ययने गाथा १६-१७ श्रीसमाध्यध्ययनम् अशुद्ध लेश्याओं को त्यागकर संयम के अनुष्ठान में प्रवृत्ति करे । साधु स्वयं घर न छावे तथा दूसरे से भी न छवावे । यह उपलक्षणमात्र कहा गया है, इसलिए साधु गृहसम्बन्धी दूसरा कार्य भी न करे । जैसे सर्प अपने लिए बिल नहीं बनाता है किन्तु दूसरे ने बनाए हुए बिल में निवास करता है, इसी तरह दूसरे के बनाये हुए मकान में निवास करनेवाला साधु गृह का संस्कार न करे । एवं शास्त्रकार दूसरे गृहस्थों के कार्यों का निषेध करने के लिए कहते हैं जो बार बार जन्म धारण करते हैं, उन्हें प्रजा कहते हैं, उनके साथ जिस कार्य से मिश्रभाव हो वह कार्य साधु न करे। कहने का आशय यह है कि दीक्षा लेकर रसोई पकाने अथवा दूसरे से पकवाने आदि क्रिया करने से गृहस्थ के साथ मिश्रभाव हो जाता है अथवा स्त्रियों को प्रजा कहते हैं, उनके साथ मिलाप करना सम्पूर्ण संयमार्थी पुरुष सर्वथा त्याग करे ||१५|| - जे केइ लोगंमि उ अकिरियआया, अन्त्रेण पुट्ठा धुयमादिसंति । आरंभसत्ता गढिता य लोए, धम्मं ण जाणंति विमुक्खहेउं ॥१६॥ छाया - ये केऽपि लोकेत्वक्रियात्मानोऽन्येन पृष्टाः धुतमादिशन्ति । आरम्भसक्ताः गृद्धाश्च लोके, धर्म न जानन्ति विमोक्षहेतुम् ॥ - अन्वयार्थ – (लोगंमि उ जे केइ अकिरियआया) इस लोक में जो लोग आत्मा को क्रिया रहित मानते हैं (अन्त्रेण पुट्ठा घुयमादिसंति) और दूसरे के पूछने पर मोक्ष का आदेश करते हैं (आरंभसत्ता लोए गढिता) वे आरम्भ में आसक्त और विषयभोग में मूर्च्छित हैं। (विमोक्खहे धम्मं ण जाणंति) वे मोक्ष के कारण रूप धर्म को नहीं जानते हैं । भावार्थ - इस लोक में जो आत्मा को क्रिया रहित मानते हैं और दूसरे के पूछने पर मोक्ष का उपदेश करते हैं वे आरम्भ में आसक्त और विषयभोग में मूर्च्छित हैं, वे मोक्ष के कारण भूत धर्म को नहीं जानते हैं । टीका ये केचन अस्मिन् लोके अक्रिय आत्मा येषामभ्युपगमे तेऽक्रियात्मानः साङ्ख्या:, तेषां हि सर्वव्यापित्वादात्मा निष्क्रियः पठ्यते, तथा चोक्तम् - " अकर्ता निर्गुणो भोक्ता, आत्मा कपिलदर्शने" इति, तुशब्दो विशेषणे, स चैतद्विशिनष्टि - अमूर्तत्वव्यापित्वाभ्यामात्मनोऽक्रियत्वमेव बुध्यते, ते चाक्रियात्मवादिनोऽन्येनाक्रियत्वे सति बन्धमोक्षौ न घटेते इत्यभिप्रायवता मोक्षसद्भावं पृष्टाः सन्तोऽक्रियावाददर्शनेऽपि "धूतं'' मोक्षसद्भावम् "आदिशन्ति” प्रतिपादयन्ति, ते तु पचनपाचनादिके स्नानार्थं जलावगाहनरूपे वा "आरम्भे" सावद्ये "सक्ता" अध्युपपन्ना गृद्धास्तु लोके मोक्षैकहेतुभूतं "धर्मं श्रुतचारित्राख्यं " न जानन्ति " कुमार्गग्राहिणो न सम्यगवगच्छन्तीति ॥ १६ ॥ किञ्चान्यत् टीकार्थ - इस लोक में सांख्य आदि, आत्मा को क्रिया रहित मानते हैं। उनका माना हुआ आत्मा सर्वव्यापी होने के कारण क्रिया रहित है, अत एव कहा है कि ( अकर्ता) अर्थात् सांख्यदर्शन का आत्मा स्वयं कर्ता नहीं है तथा निर्गुण यानी सिद्ध पुरुष की तरह गुणरहित है एवं वह कर्म फल का भोग करनेवाला है । तु शब्द विशेषणार्थक है । वह आत्मा की विशेषता बतलाता है । सांख्यवादी कहते हैं कि आत्मा दीखता नहीं है, इसलिए अमूर्त है तथा वह छोटे मोटे सभी पदार्थों में रहता है, अतः वह सर्वव्यापक है, इस कारण वह स्वयं अकर्ता प्रतीत होता है । इस सांख्यवादी की मान्यता के अनुसार क्रिया रहित आत्मा में बन्ध, मोक्ष नहीं घटित होते हैं, इस प्रकार किसी के पूछने पर वे अपने अक्रियावाद सिद्धान्त में भी बन्ध और मोक्ष का अस्तित्व बताते हैं । वे सांख्यवादी साधु स्वयं रसोई पकाते हैं तथा दूसरे से भी पकवाते हैं एवं स्नान के लिए नदी आदि में अवगाहन करते हैं । इस प्रकार सावद्य कार्य में प्रवृत्त वे सांख्यवादी मोक्ष के वास्तविक कारणभूत श्रुत और चारित्र धर्मं को नहीं जानते हैं, इसी कारण कुमार्ग को ग्रहण करनेवाले वे धर्म के तत्त्व को अच्छी तरह नहीं जानते हैं ||१६|| पुढो य छंदा इह माणवा उ, किरियाकिरीयं च पुढो य वायं । जायस्स बालस्स पकुव्व देहं पवड्ढती वेरमसंजतस्स > ४५८ ॥१७॥
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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