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सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते दशममध्ययने गाथा १५
छाया
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अन्वयार्थ - (भिक्खु) साधु (अरई रई च अभिभूय) संयम में अरति अर्थात् खेद तथा असंयम में रति अर्थात् राग को त्यागकर (तणाइफासं तह सीयफासं उण्डं च दंसं चऽहियासएज्जा) तृण आदि का स्पर्श तथा शीत, उष्ण और दंश मशक के स्पर्श को सहन करे (सुब्धिं च दुब्मिं च तितिक्खएज्जा) तथा सुगन्ध और दुर्गन्ध को भी सहे ।
अरति रतिशाभिभूय भिक्षुस्तृणादिस्पर्श तथा शीतस्पर्शम् । उष्णञ्च दंशशाधिसहेत, सुरभिशासुरभिश तितिक्षयेत् ॥
भावार्थ - साधु संयम में खेद और असंयम में प्रेम को त्यागकर तृण आदि तथा शीत, उष्ण, दंश मशक और सुगन्ध तथा दुर्गन्ध को सहन करे ।
टीका स भावभिक्षुः परमार्थदर्शी शरीरादौ निःस्पृहो मोक्षगमनैकप्रवणश्च या संयमेऽरतिरसंयमे च रतिर्वा तामभिभूय एतदधिसहेत, तद्यथा - निष्किञ्चनतया तृणादिकान् स्पर्शानादिग्रहणान्निम्नोन्नत भूप्रदेशस्पर्शांश्च सम्यगधिसहेत, तथा शीतोष्णदंशमशकक्षुत्पिपासादिकान् परीषहानक्षोभ्यतया निर्जरार्थम् " अध्यासयेद् " अधिसहेत तथा गन्धं सुरभिमितरं च सम्यक् ‘“तितिक्षयेत्" सह्यात्, चशब्दादाक्रोशवधादिकांश्च परिषहान्मुमुक्षुस्तितिक्षयेदिति ||१४|| किञ्चान्यत् - टीकार्थ वह भावसाधु परमार्थदर्शी है, जो शरीर आदि से निःस्पृह तथा मोक्ष जाने में तत्पर होकर तथा संयम में खेद और असंयम में राग को छोड़कर आगे कहे जाने वाले दुःखों को सहता है । जैसे कि निष्परिग्रही होने के कारण तृण आदि के स्पर्श को तथा आदि शब्द से नीचे और ऊंचे पृथिवी प्रदेशों के स्पर्श को अच्छी तरह सहन करता है एवं शीत, उष्ण, दंश, मशक, और क्षुधा पिपासा आदि परीषहों को निर्जरा के लिए सहन करता है, उनसे घबराता नहीं है तथा सुगन्ध और दुर्गन्ध को सहता है तथा च शब्द से आक्रोश और वध आदि दुःखों को सहता है, वही पुरुष वस्तुतः मुक्ति की इच्छा करनेवाला है ||१४||
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गुत्तो वईए य समाहिपत्तो, लेसं समाहट्टु परिवएज्जा । गिहं न छाए णवि छायएज्जा, संमिस्सभावं पयहे पयासु
छाया - गुप्तो वाचा च समाधि प्राप्तो, लेश्यां समाहत्य परिव्रजेत् । गृहं न छादयेनाऽपि छादयेत्संमिश्रभावं प्रजह्यात्प्रनासु ॥
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श्रीसमाध्यध्ययनम्
अन्वयार्थ - ( वईए य गुत्तो समाहिपत्तो ) जो साधु वचन से गुप्त रहता है, वह भावसमाधि को प्राप्त है । (लेसं समाहट्टु परिवएज्जा) साधु शुद्ध लेश्या को ग्रहण करके संयम पालन करे । (गिहं न छाए गवि छायएज्जा) घर स्वयं न छावे और दूसरे से भी न छवावे । ( पयासु संमिस्स भावं पयहे) और स्त्रियों के साथ मिश्रण न करे ।
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भावार्थ - जो साधु वचन से गुप्त है, वह भावसमाधि को प्राप्त है । साधु शुद्ध लेश्या को ग्रहण करके संयम का अनुष्ठान करे तथा वह स्वयं घर न छावे और दूसरे से भी न छवावे तथा स्त्रियों के साथ संसर्ग न करे ।
टीका वाचि वाचा वा गुप्तो वाग्गुप्तो - मौनव्रती सुपर्यालोचितधर्मसम्बन्धभाषी वेत्येवं भावसमाधिं प्राप्तो भवति, तथा शुद्धां "लेश्यां" तैजस्यादिकां "समाहृत्य' उपादाय अशुद्धां च कृष्णादिकामपहृत्य परि समन्तात्संयमानुष्ठाने "व्रजेत्" गच्छेदिति, किञ्चान्यत् गृहम् आवसथं स्वतोऽन्येन वा न छादयेदुपलक्षणार्थत्वादस्यापरमपि गृहादेरुरगवत्परकृतबिलनिवासित्वात्संस्कारं न कुर्यात्, अन्यदपि गृहस्थकर्तव्यं परिजिहीर्षु प्रजायन्त इति प्रजास्तासु - तद्विषये येन कृतेन सम्मिश्रभावो भवति तत्प्रजह्यात्, एतदुक्तं भवति - प्रव्रजितोऽपि सन् पचनपाचनादिकां क्रियां कुर्वन् कारयंश्च गृहस्थैः सम्मिश्रभावं भजते, यदिवा स्त्रियस्तासु ताभिर्वा यः सम्मिश्रीभावस्तमविकलसंयमार्थी "प्रजह्यात् परित्यजेदिति ॥ १५ ॥ अपिच
प्रजाः
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।।१५।।
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टीकार्थ जो साधु वचन से गुप्त रहता है अर्थात् मौनव्रत करता है अथवा विचार कर धर्मसम्बन्धी बात कहता है, वह भावसमाधि को प्राप्त है । एवं साधु तैजस आदि शुद्ध लेश्याओं को स्वीकार करके और कृष्णादिक
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