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________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते दशममध्ययने गाथा १३-१४ श्रीसमाध्यध्ययनम् "एगो" अर्थात् ज्ञान-दर्शन से युक्त मेरा एक आत्मा ही शाश्वत है, बाकी के सभी पदार्थ बाह्य हैं और वे कर्म के कारण संयोग को प्राप्त हैं । इस प्रकार साधु सदा एकत्व की भावना करता रहे। एकत्व की भावना करने से ही सब झंझटों से छुटकारा होता है, इसमें जरा भी झूठ नहीं है, यह देखो। यह एकत्व की भावना ही मोक्ष का उपाय है तथा यही सत्य और प्रधान है अथवा यही भावसमाधि । अथवा जो तपस्वी है अर्थात् तप से अपने शरीर को तपानेवाला है तथा क्रोध नहीं करता है एवं क्रोध उपलक्षण होने से मान, माया और लोभ नहीं करता है तथा सत्य में रत रहता है। वही पुरुष सच्चा मुक्त और सबसे प्रधान है ॥ १२॥ इत्थीसु या आरय मेहुणाओ, परिग्गहं चेव अकुव्वमाणे । उच्चावएसु विसएसु ताई, निस्संसयं भिक्खू समाहिपत्ते छाया - स्त्रीषुचारतमैथुनस्तु परिग्रहथैवाकुर्वाणः । उच्चावचेषु विषयेषु त्रायी, निःसंशयं भिक्षुः समाधि प्राप्रः ॥ 112311 अन्वयार्थ - (इत्थि या आरयमेहुणाओ ) जो पुरुष स्त्रियों के साथ मैथुन नहीं करता है। (परिग्गहं चेव अकुव्वमाणे) तथा परिग्रह नहीं करता है (उच्चावसु विसएसु ताई) एवं नाना प्रकार के विषयों में रागद्वेष रहित होकर जीवों की रक्षा करता है (निस्संसयं भिक्खू समाहिपत्ते) वह साधु निःसन्देह समाधि को प्राप्त है । भावार्थ - जो साधु स्त्रियों के साथ मैथुन सेवन नहीं करता है तथा परिग्रह नहीं करता है एवं नाना प्रकार के विषयों में रागद्वेष रहित होकर जीवों की रक्षा करता है, वह निःसन्देह समाधि को प्राप्त है । टीका - दिव्यमानुषतिर्यग्रूपासु त्रिविधास्वपि स्त्रीषु विषयभूतासु यत् "मैथुनम्" अबह्म तस्माद् आ समन्तान्न रतः - अरतो निवृत्त इत्यर्थः, तुशब्दात्प्राणातिपातादिनिवृत्तश्च तथा परि समन्ताद्गृह्यते इति परिग्रहो धनधान्यद्विपदचतुष्पदादिसंग्रहः तथा आत्माऽऽत्मीयग्रहस्तं चैवाकुर्वाणः सन्नुच्चावचेषु नानारूपेषु विषयेषु यदिवोच्चाउत्कृष्टा अवचा - जघन्यास्तेष्वरक्तद्विष्टः "त्रायी" अपरेषां च त्राणभूतो विशिष्टोपदेशदानतो "निःसंशयं" निश्चयेन परमार्थतो “भिक्षुः " साधुरेवम्भूतो मूलोत्तरगुणसमन्वितो भावसमाधिं प्राप्तो भवति, नापर: कश्चिदिति, उच्चावचेषु वा विषयेषु भावसमाधिं प्राप्तो भिक्षुर्न संश्रयं याति नानारूपान् विषयान् न संश्रयतीत्यर्थः ॥१३॥ - टीकार्थ दिव्य, मनुष्य और तिर्यञ्च इन तीन प्रकार की स्त्रियों में जो मैथुन सेवन नहीं करता है तथा तु शब्द से जो प्राणातिपात आदि से निवृत्त है, एवं जो चारो तरफ से ग्रहण किया जाता उसे परिग्रह कहते हैं, वह धनधान्यद्विपद और चतुष्पदों को संग्रह करना है तथा इन वस्तुओं में अपना ममत्व स्थापन करना है, इसे जो नहीं करता तथा नाना प्रकार के विषयों में जो आसक्त नहीं है अथवा उत्कृष्ट विषयों में जिसका राग और निकृष्ट में द्वेष नहीं है तथा जो विशिष्ट उपदेश देकर प्राणियों की रक्षा करता है, वह मूल और उत्तरगुणों से युक्त साधु वास्तव में भावसमाधि को प्राप्त है परन्तु इससे विपरीत पुरुष नहीं । अथवा नाना प्रकार के विषयों में जो भावसमाधि को प्राप्त है, वह साधु विषयों का सेवन नहीं करता है, यह अर्थ है ॥१३॥ हैं अरई रई च अभिभूय भिक्खू, तणाइफासं तह सीयफासं । उण्हं च दंसं चऽहियासएज्जा, सुब्भिं व दुब्भिं व तितिक्खएज्जा ४५६ विषयाननाश्रयन् कथं भावसमाधिमाप्नुयादित्याह - -- विषयों का सेवन न करता हुआ साधु किस प्रकार भावसमाधि को प्राप्त करता है, यह शास्त्रकार बताते 118811
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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