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सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते दशममध्ययने गाथा १२
श्रीसमाध्यध्ययनम्
टीका साधूनाधाय कृतमाधाकृतमौद्देशिकमाधाकर्मेत्यर्थः, तदेवम्भूतमाहारजातं निश्चयेनैव "न कामयेत्" नाभिलषेत् तथाविधाहारादिकं च "निकामयतः " निश्चयेनाभिलषतः पार्श्वस्थादींस्तत्सम्पर्कदानप्रतिग्रहसंवाससम्भाषणादिभिः न संस्थापयेत् – नोपबृंहयेत् तैर्वा सार्धं संस्तवं न कुर्यादिति, किञ्च - "उरालं" ति औदारिकं शरीरं विकृष्टतपसा कर्मनिर्जरामनुप्रेक्षमाणो "धुनीयात्" कृशं कुर्यात्, यदिवा "उरालं" ति बहुजन्मान्तरसञ्चितं कर्म तदुदारं मोक्षमनुप्रेक्षमाणो “धुनीयाद्" अपनयेत्, तस्मिंश्च तपसा धूयमाने कृशीभवति शरीरके कदाचित् शोकः स्यात् तं त्यक्त्वा याचितोपकरणवदनुप्रेक्षमाणः शरीरकं धुनीयादिति सम्बन्धः ॥११॥
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टीकार्थ जो आहार साधु के लिए किया गया है, उसे आधाकर्म कहते हैं, उस आहार की साधु कभी भी इच्छा न करे तथा जो उस आहार की कामना करता है, ऐसे पार्श्वस्थ आदि के साथ लेना, देना या साथ रहना तथा बहुत बातचीत करना इत्यादि परिचय साधु न करे । तथा कर्म की निर्जरा के लिए बड़ी तपस्या के द्वारा शरीर को कृश करे । अथवा साधु बहुत जन्मों के सञ्चित कर्म को मोक्ष की प्राप्ति के लिए नाश करे । तप के द्वारा कर्मों को क्षय करते समय शरीर की कृशता हो जाने से कदाचित् साधु को शोक उत्पन्न हो तो साधु शरीर को माँगकर लाये हुए उपकरण के समान जानकर शोक न करे किन्तु शरीर के मल के समान कर्मों को नष्ट करे॥११॥
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किञ्चापेक्षेतेत्याह
किसकी अपेक्षा करे वह कहते है
एगत्तमेयं अभिपत्थएज्जा, एवं पमोक्खो न मुसं ति पास । एसप्पमोक्खो अमुसे वरेवि, अकोहणे सच्चरते तवस्सी
छाया - एकत्वमेतदभिप्रार्थयेदेवं प्रमोक्षो न मृषेति पश्य ।
एष प्रमोक्षोऽमृषा वरोऽपि, अक्रोधनः सत्यरतस्तपस्वी ॥
।।१२।।
अन्वयार्थ - ( एगत्तमेयं अभिपत्थरज्जा) साधु एकत्व की भावना करे ( एवं पमोक्खो न मुसंति पासं) एकत्व की भावना करने से ही साधु निःसङ्गता को प्राप्त होता है, यह मिथ्या नहीं किन्तु सत्य जानो । ( एसपमोक्खो अमुसे वरेवि ) यह एकत्व की भावना ही उत्कृष्ट मोक्ष है तथा यही सत्य भावसमाधि और प्रधान है । ( अकोहणे सच्चरते तवस्सी) जो क्रोध रहित तथा सत्य में रत और तपस्वी है, वही सबसे श्रेष्ठ है । भावार्थ - साधु एकत्व की भावना करे क्योंकि एकत्व की भावना से ही निःसङ्गता प्राप्त होती है । यह एकत्व की भावना ही उत्कृष्ट मोक्ष है, अतः जो इस भावना से युक्त होकर क्रोध नहीं करता है तथा सत्य भाषण और तप करता वही पुरुष सबसे श्रेष्ठ है ।
टीका - एकत्वम् - असहायत्वमभिप्रार्थयेद् - एकत्वाध्यवसायी स्यात्, तथाहि - जन्मजरामरणरोगशोकाकुले संसारे स्वकृतकर्मणा विलुप्यमानानामसुमतां न कश्चित्त्राणसमर्थः सहाय: स्यात्, तथा चोक्तम् -
"एगो मे सासओ अप्पा, णाणदंसणसंजुओ । सेसा मे बाहिरा भावा, सव्वे संयोगलक्खणा ||१||” इत्यादिकामेकत्वभावनां भावयेद् एवमनयैकत्वभावनया प्रकर्षेण मोक्षः प्रमोक्षो विप्रमुक्तसङ्गता, न "मृषा" अलीकमेतद्भवतीत्येवं पश्य, एष एवैकत्वभावनाभिप्रायः प्रमोक्षो वर्तते, अमृषारूप: सत्यश्चायमेव । तथा "वरोऽपि " प्रधानोऽप्ययमेव भावसमाधिर्वा, यदिवा यः " तपस्वी" तपोनिष्टप्तदेहोऽक्रोधनः उपलक्षणार्थत्वादस्यामानो निर्मायो निर्लोभः सत्यरतश्च एष एव प्रमोक्ष " अमृषा" सत्यो "वरः ' प्रधानश्च वर्तत इति ॥ १२ ॥ किञ्चान्यत्
टीकार्थ साधु एकत्व की इच्छा करे, दूसरे की सहायता की इच्छा न करे तथा एकत्व का विचार रखे, क्योंकि जन्म, जरा, मरण, रोग और शोक से पूर्ण इस जगत् में अपने किये हुए कर्म से दुःख भोगते हुए प्राणी की कोई भी रक्षा करने में समर्थ नहीं है । अत एव कहा है कि
1. एको मे शाधत आत्मा ज्ञानदर्शनसंयुतः शेषा मे बाह्या भावाः सर्वे संयोगलक्षणाः ||१||
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