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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते दशममध्ययने गाथा १०-११ श्रीसमाध्यध्ययनम् आयं ण कुज्जा इह जीवियट्ठी, असज्जमाणो य परिव्वएज्जा । णिसम्मभासी य विणीय गिद्धिं, हिंसनियं वा ण कहं करेज्जा ॥१०॥ छाया - आयं न कुर्य्यादिह जीविता , असजमानश्च परिव्रजेत् । निशम्यभाषी च विनीय गृद्धि हिंसान्वितां वा न कथां कुर्य्यात् ॥ अन्वयार्थ - (इह जीवियट्ठी आयं ण कुज्जा) साधु इसलोक में चिरकाल तक जीने की इच्छा से द्रव्य उपार्जन न करे । (असज्जमाणो य परिब्बएज्जा) तथा स्त्री-पुत्र आदि में आसक्त न रहता हुआ संयम में प्रवृत्ति करे (णिसम्मभासी) एवं साधु विचारकर कोई बात कहे (गिद्धिं विणीय) तथा शब्दादि विषयों में आसक्ति को हटाकर (हिंसन्नियं कहं ण करेज्जा) हिंसा सम्बन्धी कथा न कहे। भावार्थ - साधु इस संसार में चिरकाल तक जीने की इच्छा से द्रव्य का उपार्जन न करे । तथा स्त्री, पुत्रादि में आसक्त न होता हुआ संयम में प्रवृत्ति करे । साधु विचारकर कोई बात कहे तथा शब्दादि विषयों से आसक्ति हटाकर हिंसायुक्त कथा न कहे । टीका - आगच्छतीत्यायो - द्रव्यादेर्लाभस्तन्निमित्तापादितोऽष्टप्रकारकर्मलाभो वा तम् "इह" अस्मिन् संसारे "असंयमजीवितार्थी" भोगप्रधानजीवितार्थीत्यर्थः, यदिवा - आजीविकाभयात् द्रव्यसञ्चयं न कुर्यात्, पाठान्तरं वा छन्दणं कुज्जा इत्यादि, छन्दः - प्रार्थनाऽभिलाष इन्द्रियाणां स्वविषयाभिलाषो वा तत् न कुर्यात्, तथा "असजमानः" सङ्गमकुर्वन् गृहपुत्रकलत्रादिषु “परिव्रजेत्" उद्युक्तविहारी भवेत् तथा "गृद्धिं" गायं विषयेषु शब्दादिषु "विनीय" अपनीय "निशम्य" अवगम्य पूर्वोत्तरेण पर्यालोच्य भाषको भवेत्, तदेव दर्शयति - हिंसया - प्राण्युपमर्दरूपया अन्वितां युक्तां कथां न कुर्यात्, न तत् ब्रूयात् यत्परात्मनोः उभयोर्वा बाधकं वच इति भावः, तद्यथा - अश्नीत पिबत खादत मोदत हत छिन्त प्रहरत पचतेत्यादिकथां पापोपादानभूतां न कुर्यादिति ॥१०॥ अपि च टीकार्थ - जो अपने पास आता है, उसे आय कहते हैं, वह द्रव्य का लाभ है अथवा द्रव्य के लाभ के लिए जो आठ प्रकार के कर्मों की प्राप्ति होती है, उसे आय कहते हैं । वह आय, इस लोक में असंयम जीवन की इच्छा से अथवा भोगप्रधान जीवन की इच्छा से साधु न करे । अथवा साधु आजीविका के भय से द्रव्य का सञ्चय न करे । अथवा "छन्दणं कुज्जा" इस पाठान्तर के अनुसार साधु इन्द्रियों के विषयभोग की इच्छा न करे। तथा गृह, पुत्र और स्त्री आदि में आसक्त न होता हुआ विहार करे । तथा शब्दादि विषयों से आसक्ति हटाकर आगे पीछे सोचकर कोई बात कहे, यही शास्त्रकार दिखाते हैं - साधु हिंसा से युक्त कथा न कहे तथा जिससे अपने को तथा दूसरे को एवं दोनों को दुःख उत्पन्न हो ऐसा वचन न कहे जैसे कि खाओ, पियो, हणो, छेदो, प्रहार करो, पकाओ, इत्यादि पाप के कारणरूप कथा न कहे ॥१०॥ आहाकडं वा ण णिकामएज्जा, णिकामयंते य ण संथवेज्जा । धुणे उरालं अणुवेहमाणे, चिच्चा ण सोयं अणवेक्खमाणो ॥११॥ छाया - आधाकृतं वा न निकामयेत्, निकामयतश्च न संस्तुयात् । धुनीयादुदारमनुप्रेक्षमाणः, त्यक्त्वा च शोकमनपेक्षमाणः ॥ अन्वयार्थ - (आहाकडं वा ण णिकामएज्जा) साधु आधाकर्मी आहार की कामना न करे (णिकामयंते य ण संथवेज्जा) तथा जो आधाकर्मी आहार की कामना करता है, उसके साथ परिचय न करे । (अणुवेहमाणे उरालं धुणे) निर्जरा के लिए शरीर को कृश करे (अणवेक्खमाणो सोय चिच्चा) शरीर की परवाह न करता हुआ शोक को छोड़कर संयम पालन करे । भावार्थ - साधु आधाकर्मी आहार की इच्छा न करे और जो आधाकर्मी आहार की इच्छा करता है, उसके साथ परिचय न करे । तथा निर्जरा की प्राप्ति के लिए शरीर को कृश करे और शरीर की परवाह न रखता हुआ शोक को छोड़कर संयम पालन करे । ४५४
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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