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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते दशममध्ययने गाथा ९
श्रीसमाध्यध्ययनम् टीकार्थ - जो आहार आदि साधु को देने के लिए बनाया गया है, वह आधाकर्म कहलाता है। उस आधाकर्म आहार अथवा उपकरण आदि की जो अत्यन्त इच्छा करता है, उसे "निकाममीण" कहते हैं । तथा जो आधाकर्मी आहार आदि के लिए निमन्त्रण आदि की इच्छा करता है, वह पुरुष संयम पालन करने में ढीले पार्श्वस्थ, अवसन्न और कुशीलों के धर्म का सेवन करता है । वह संयम की क्रिया में ढीला होकर संसाररूपी कीचड़ में फँसता है। (अर्थात् फिर गृहस्थ हो जाता हैं) एवं वह स्त्री में आसक्त होकर उसके भाषण, हास्य और विव्वोक (अभिमान के कारण इष्ट वस्तु में भी अनादर प्रकट करना) तथा उसके मुख, स्तन आदि अङ्गो में रागी होकर बालक के समान भले और बुरे के विवेक से रहित हो जाता है । द्रव्य के बिना स्त्री की प्राप्ति नहीं होती है, इसलिए स्त्री में आसक्त वह पुरुष जिस किसी उपाय से धन का सञ्चय रूप परिग्रह करता है। वह पुरुष पाप का सञ्चय करता है, यह जानना चाहिए ॥८॥
वेराणुगिद्धे णिचयं करेति, इओ चुते स इहमट्ठदुग्गं । तम्हा उ मेधावि समिक्ख धम्म, चरे मुणी सव्वउ विप्पमुक्के
॥९॥ छाया - वैरानुगृद्धो निचयं करोति, इतच्युतः स इदमर्थदुर्गम् ।
__ तस्मात्तु मेधावी समीक्ष्य धर्म चरेब्मुनिः सर्वतोविप्रमुक्तः ॥ अन्वयार्थ - (वेराणुगिद्धे) जो पुरुष प्राणियों के साथ वैर करता है (णिचयं करेति) वह पाप कर्म की वृद्धि करता है। (इओ चुते स इहमट्ठदुग्गं) वह मरकर नरक आदि दुःखदायी स्थानों में जन्म लेता है । (तम्हा उ मेधावी मुणी) इसलिए बुद्धिमान् मुनि (धम्म समिक्ख) धर्म विचारकर (सव्वउ विप्पमुक्के) सब बन्धनों से रहित होकर संयम का पालन करे ।
भावार्थ - जो पुरुष प्राणियों की हिंसा करता हुआ उनके साथ वैर बांधता है, वह पाप की वृद्धि करता है तथा वह मरकर नरक आदि दुःखों को प्रास करता है, इसलिए विद्वान् मुनि धर्म का विचार कर सब अनर्थों से रहित होकर संयम का पालन करे ।
___टीका - येन केन कर्मणा - परोपतापरूपेण वैरमनुबध्यते जन्मान्तरशतानुयायि भवति तत्र गृद्धो वैरानुगृद्धः, पाठान्तरं वा "आरंभसत्तो" त्ति आरम्भे सावद्यानुष्ठानरूपे सक्तों - लग्नो निरनुकम्पो “निचयं" द्रव्योपचयं तन्निमित्तापादितकर्मनिचयं वा "करोति" उपादत्ते "स" एवम्भूत उपात्तवैरः कृतकर्मोपचय "इतः" अस्मात्स्थानात् "च्युतो" जन्मान्तरं गतः सन् दुःखयतीति दुःखं - नरकादियातनास्थानमर्थतः- परमार्थतो दुर्ग - विषमं दुरुत्तरमुपैति, यत एवं तत्तस्मात् “मेधावी" विवेकी मर्यादावान् वा सम्पूर्णसमाधिगुणं जानानो "धर्म" श्रुतचारित्राख्यं "समीक्ष्य" आलोच्याङ्गीकृत्य "मुनिः" साधुः "सर्वतः" सबाह्याभ्यन्तरात्सङ्गात् "विप्रमुक्तः" अपगतः संयमानुष्ठानं मुक्तिगमनैकहेतुभूतं "चरेद्" अनुतिष्ठेत्, स्त्र्यारम्भादिसङ्गाद्विप्रमुक्तोऽनिश्रितभावेन विहरेदितियावत् ॥९॥ किञ्चान्यत् -
टीकार्थ - जो कर्म करने से प्राणियों को पीड़ा होती है और उनके साथ सेंकडों जन्मों के लिए वैर बंधता है, उस कर्म में जो आसक्त है अथवा "आरम्भसत्तो" इस पाठान्तर के अनुसार जो सावध अनुष्ठान में आसक्त है अर्थात् अनुकम्पारहित है तथा इस कार्य के द्वारा द्रव्य का संग्रह करता है अथवा द्रव्यसंग्रह के लिए कर्म बाँधता है । वह प्राणियों के साथ वैर तथा पाप कर्म का संग्रह करने के कारण इस भव को छोड़कर दुस्तर नरक आदि महापीड़ा स्थानों में जन्म धारण करता है । पापी पुरुष की नरकादि गति होती है, इसलिए विवेकी अथवा मर्यादा में स्थित एव सम्पूर्ण समाधि गुण को जाननेवाला साधु श्रुत और चारित्र धर्म को स्वीकार करके बाह्य और आभ्यन्तर सङ्गो को छोड़कर मोक्ष प्राप्ति के कारणरूप संयम का अनुष्ठान करे । वह स्त्री और आरम्भ आदि से रहित होकर स्वतंत्र विचरे यह भाव है ॥९॥
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