________________
सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते दशममध्ययने गाथा ८
श्रीसमाध्यध्ययनम् अपनी पूजा और प्रशंसा के अभिलाषी हो जाते हैं ।
___टीका - "सर्व" चराचरं "जगत्" प्राणिसमूहं समतया प्रेक्षितुं शीलमस्य स समतानुप्रेक्षी समतापश्यको वा, न कश्चित्प्रियो नापि द्वेष्य इत्यर्थः, तथा चोक्तम्-1"नत्थि य सि कोइ विस्सो पिओ व सव्वेसु चेव जीवेसु"तथा - "जह मम ण पियं दुक्खमि" त्यादि, समतोपेतश्च न कस्यचित्प्रियमप्रियं वा कुर्यानिःसङ्गतया विहरेद्, एवं हि सम्पूर्णभावसमाधियुक्तो भवति, कश्चित्तु भावसमाधिना सम्यगुत्थानेनोत्थाय परीषहोपसर्गस्तर्जितो दीनभावमुपगम्य पुनर्विषण्णो भवति विषयार्थी वा कश्चिद्गार्हस्थ्यमप्यवलम्बते रससातागौरवगृद्धो वा पूजासत्काराभिलाषी स्यात् तदभावे दीनः सन् पार्श्वस्थादिभावेन वा विषण्णो भवति, कश्चित्तथा सम्पूजनं वस्त्रपात्रादिना प्रार्थयेत् “श्लोककामी च" श्लाघाभिलाषी च व्याकरणगणितज्योतिषनिमित्तशास्त्राण्यधीते कश्चिदिति ॥७॥ किञ्चान्यत् -
टीकार्थ - साधु चर और अचर सब प्राणियों को समभाव से देखता हुआ किसी को प्रिय और किसी को अप्रिय न समझे । अत एव कहा है कि - (नत्थि य) अर्थात् समस्त जीवों में साधु का न तो कोई द्वेष का पात्र है और न कोई प्रेम का भाजन है, अत एव साधु यह चिन्ता करता है कि - जैसे मुझको दुःख अप्रिय है इसी तरह दूसरे प्राणियों को भी अप्रिय है, इस प्रकार साधु समभाव से युक्त होकर किसी का भी प्रिय अथवा अप्रिय न करे किन्तु निःसङ्ग होकर विचरे । जो साधु ऐसा करनेवाला है, वह सम्पूर्ण भावसमाधि से युक्त होता है परन्तु कोई पुरुष भावसमाधि के द्वारा अपनी उन्नति करके अर्थात् दीक्षा लेकर भी परीषह और उपसर्गों से पीड़ित होकर दीन हो जाते हैं और वे पश्चात्ताप करते हैं । तथा कोई विषयलोलुप होकर फिर गृहस्थ हो जाते हैं एवं कोई रस और सातागौरव में आसक्त होकर पूजा और सत्कार के अभिलाषी बन जाते हैं । वे पूजा सत्कार प्राप्त न होने पर पार्श्वस्थ बनकर खेद करते हैं । तथा कोई वस्त्र और पात्र आदि की चाहना करनेवाले हो जाते हैं एवं कोई अपनी प्रशंसा के लिए व्याकरण, गणित, ज्योतिष और निमित्तशास्त्र पढ़ते हैं ॥७॥
आहाकडं चेव निकाममीणे, नियामचारी य विसण्णमेसी । इत्थीसु सत्ते य पुढो य बाले, परिग्गहं चेव पकुव्वमाणे
॥८॥ छाया - आधाकृतथैव निकाममीणो, निकामचारी च विषण्णेषी ।
स्त्रीषु सक्तश्चपृथक् च बालः परिग्रहशेव प्रकुर्वाणः ॥ अन्वयार्थ - (आहाकडं चेव निकाममीणे) जो दीक्षा लेकर आधाकर्मी आहार की अत्यन्त इच्छा करता है (नियामचारी य विसण्णमेसी) तथा जो आधाकर्मी आहार के लिए विचरता है, वह कुशील बनना चाहता है । (इत्थीसु सत्ते य) तथा जो स्त्री में आसक्त है (पुढो य बाले) एवं स्त्री के विलासों में अज्ञानी की तरह मुग्ध रहता है तथा (परिग्गहं चेव पकुव्वमाणे) स्त्री की प्राप्ति के लिए परिग्रह रखता है । वह पापकर्म करता है।
भावार्थ- जो पुरुष प्रव्रज्या लेकर आधाकर्मी आहार की चाहना करता है और आधाकर्मी आहार के लिए अत्यन्त भ्रमण करता है, वह कुशील है तथा जो स्त्री में आसक्त होकर उसके विलासों में मोहित हो गया है तथा स्त्री प्राप्ति के लिए परिग्रह करता है। वह पाप की वृद्धि करता है।
टीका - साधूनाधाय -उद्दिश्य कृतं निष्पादितमाधाकर्मेत्यर्थः, तदेवम्भूतमाहारोपकरणादिकं निकामम् - अत्यर्थं यः प्रार्थयते स निकाममीणेत्युच्यते । तथा “निकामम्" अत्यर्थं आधाकर्मादीनि तन्निमित्तं निमन्त्रणादीनि वा सरतिचरति तच्छीलश्च स तथा, एवम्भूतः पार्श्वस्थावसन्नकुशीलानां संयमोद्योगे विषण्णानां विषण्णभावमेषते, सदनुष्ठानविषण्णतया संसारपङ्कावसन्नो भवतीतियावत्, अपिच "स्त्रीषु" रमणीषु "आसक्तः" अध्युपपन्नः पृथक्-पृथक् तद्भाषितहसितविव्वोकशरीरावयवेष्विति, बालवद् "बाल" अज्ञः सदसद्विवेकविकलः, तदवसक्ततया च नान्यथा-द्रव्यमन्तरेण तत्सम्प्राप्तिर्भवतीत्यतो येन केनचिदुपायेन तदुपायभूतं परिग्रहमेव प्रकर्षेण कुर्वाणः पापं कर्म समुच्चिनोतीति ॥८॥ तथा1. नास्ति तस्य कोऽपि द्वेष्यः प्रियश्च सर्वेषु चैव जीवेषु ।।
४५२