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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते दशममध्ययने गाथा ७
श्रीसमाध्यध्ययनम्
असावेव राजगृहनगरोत्सवनिर्गतजनसमूहवैभारगिरिशिलापातनोद्यतः स देवात्स्वयं पतितः पिण्डोपजीवीति, तदेवमादीनभोज्यपि पिण्डोलकादिवज्जनः पापं कर्म करोतीत्येवं "मत्वा" अवधार्य एकान्तेनात्यन्तेन च यो भावरूपो ज्ञानादिसमाधिस्तमाहुः संसारोत्तरणाय तीर्थकरगणधरादयः, द्रव्यसमाधयो हि स्पर्शादिसुखोत्पादका अनेकान्तिका अनात्यन्तिकाश्च भवन्ति अन्ते चावश्यमसमाधिमुत्पादयन्ति, तथा चोक्तम् -
यद्यपि निषेव्यमाणा मनसः परितुष्टिकारका विषयाः । किम्पाकफलादनवद्भवन्ति पश्चादतिदुरन्ताः॥१॥
“इत्यादि, तदेवं “बुद्धः" अवगततत्त्वः स चतुर्विधेऽपि ज्ञानादिके रतो- व्यवस्थितो "विवेके वा" आहारोपकरणकषायपरित्यागरूपे द्रव्यभावात्मके रतः सन्नेवंभूतश्च स्यादित्याह - प्राणानां दशप्रकाराणामप्यतिपातो - विनाशस्तस्माद्विरतः स्थितः सम्यग्मार्गेषु आत्मा यस्य सः पाठान्तरं वा ठियच्चित्ति स्थिता शुद्धस्वभावात्मना अर्चि:- लेश्या यस्य स भवति स्थितार्चि:, - सुविशुद्धस्थिरलेश्य इत्यर्थः ||६|| किञ्च
टीकार्थ जो करुणाजनक धंधा करते हैं, वे कंगाल और भिखारी आदि "आदीनवृत्ति" कहलाते हैं । ऐसे पुरुष भी पाप करते हैं । कहीं "आदीनभोगी" यह पाठ मिलता है इसका अर्थ यह हैं कि जो पुरुष दुःख से पेट भरता है, वह भी पाप करता है । कहा है कि (पिंडोलगेव) अर्थात् टुकड़े के लिए भटकता हुआ पुरुष दुराचार करके नरक से नहीं छूटता है । वह मूर्ख जीव, कभी अच्छा आहार न मिलने से आर्त्त और रौद्रध्यान करके नरक की सातवीं भूमि में भी उत्पन्न हो सकता है । जैसे राजगृह नगर में उत्सव के समय बाहर निकले हुए लोगों पर भिक्षा न मिलने के कारण क्रोधित एक भिखारी पर्वत की शिला गिराने के लिए वैभार पर्वत पर चढ़ गया परन्तु दैववश पैर फिसल जाने से वह स्वयं गिर कर मर गया । अतः जो कंगाल भीखारी की तरह दुःख से पेट भरता है, वह भी पाप कर्म करता है । यह जानकर तीर्थंकर और गणधर आदि ने संसार सागर को पार करने के लिए भावरूप ज्ञानादि समाधि का उपदेश किया है । वह ज्ञानादि समाधि एकान्त और आत्यन्तिक सुख को उत्पन्न करती है । द्रव्यसमाधि स्पर्शादि सुख को उत्पन्न करती है और वह भी एकान्त तथा आत्यन्तिक नहीं किन्तु अनिश्चित और अल्पकाल के लिए सुख उत्पन्न करती है और अन्त में अवश्य दुःख उत्पन्न करती है । अत एव कहा है कि"यद्यपि" अर्थात् जैसे किंपाक फल खाने से पहले तो बड़ा आनंद आता है परन्तु पीछे व्याधि या मरण उत्पन्न होते हैं, इसी तरह विषय सुख भी भोगते समय मन को आनंद देते हैं परन्तु पीछे महान् दुःख उत्पन्न करते हैं ।
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अतः तत्त्व को समझा हुआ पण्डित साधु, ज्ञान वगैरह चार प्रकार की समाधि में आनन्दित रहे अथवा आहार, उपकरण और कषाय को त्यागकर द्रव्य और भाव से आनन्द माने । ऐसा होकर प्राणियों के दश प्रकार के प्राणों के विनाश से दूर तथा उत्तममार्ग में आत्मा को स्थिर रखनेवाला साधु बने । अथवा "ठियच्चि" इस पाठान्तर के अनुसार साधु विशुद्धलेश्यावाला बने || ६ ||
सव्वं जगं तू समयाणुपेही, पियमप्पियं कस्सइ णो करेज्जा ।
उट्ठाय दीणो य पुणो विसन्नो, संपूयणं चेव सिलोयकामी
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छाया - सर्वं जगत्तु समतानुप्रेक्षी, प्रियमप्रियं कस्यचिद्म कुर्य्यात् । उत्थाय दीनश्च पुनर्विषण्णः संपूजनचैव श्लोककामी ।
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अन्वयार्थ - (सव्वं जगं तु समयाणुपेही) साधु समस्त जगत् को समभाव से देखे । (कस्सइ पियमप्पियं णो करेज्जा) किसी का भी प्रिय और अप्रिय न करे (उट्ठाय दीणो य पुणो विसन्नो) कोई पुरुष प्रव्रज्या लेकर परीषह और उपसर्गों की बाधा होनेपर दीन हो जाते है और वे फिर पतित हो जाते हैं (संपूयणं चेव सिलोयकामी) और कोई पूजा और प्रशंसा के अभिलाषी बन जाते हैं ।
भावार्थ - साधु समस्त जगत् को समभाव से देखे, वह किसी का प्रिय अथवा अप्रिय न करे । कोई कोई प्रव्रज्या धारण करके परीषह और उपसर्गो की बाधा आने पर दीन हो जाते हैं और प्रव्रज्या छोड़कर पतित हो जाते हैं । कोई
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