________________
सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते दशममध्ययने गाथा ६
श्रीसमाध्यध्ययनम् ज्ञानावरणादिकं कर्म "क्रियते" समादीयते, तथा परांश्च भृत्यादीन् प्राणातिपातादौ "नियोजयन्" व्यापारयन् पापं कर्म करोति, तुशब्दान्मृषावादादिकं च कुर्वन् कारयंश्च पापकं कर्म समुच्चिनोतीति ॥५।। किञ्चान्यत् -
टीकार्थ - पहले जो प्रत्येक प्राणी बताये गये हैं तथा वनस्पतिकाय में उत्पन्न साधारण प्राणी कहे गये हैं इन प्राणियों को जो अज्ञानी और च शब्द से दूसरा पुरुष कष्ट देता है अर्थात वह इनको काटता है है या गलाता है एवं आदि शब्द से दूसरी तरह से दुःख देता है, वह पुरुष अत्यन्त पाप करनेवाला है। इस कारण वह अपने पाप का फल भोगने के लिए इन्हीं पृथिवी आदि जीवों में बार-बार जन्म लेकर अनन्त काल तक ताडन, तापन और गलाना आदि दुःखों का पात्र बनता है। यहां "एवं तु बाले" यह पाठान्तर भी पाया जाता है। इसमें एवं शब्द दृष्टान्त बताने के लिए है । जैसे चोर और परस्त्रीलम्पट पुरुष असत् अनुष्ठान करके इसलोक में हाथ पैर का छेदन तथा वध बन्धनरूप दुःखों को प्राप्त करता है, इसी तरह दूसरे भी पापी इसलोक और परलोक में दुःख के भाजन होते हैं । यह 'सामान्यतोदृष्ट अनुमान से सिद्ध होता है । कहीं (आउट्टति) यह पाठ मिलता है, इसका अर्थ यह है कि - बुद्धिमान् पुरुष, अशुभ कर्मों का दुःखरूप फल देखकर या सुनकर अथवा जानकर कर्मों से निवृत्त हो जाते हैं । (प्रश्न) वे कौन पाप के स्थान हैं ? जिनमें प्राणी प्रवृत्त होते हैं अथवा जिनसे निवृत्त होते हैं : (उत्तर)जीवहिंसा करने से प्राणी ज्ञानावरणीय आदि अशुभ कर्मों को बाँधता है तथा जो अपने नौकर आदि को जीवहिंसा करने की आज्ञा देता है, वह पापकर्म करता है तथा तु शब्द से जो झूठ बोलता है, चोरी करता है, मैथुन सेवन करता है और परिग्रह करता है अथवा दूसरे से इन कर्मों को कराता है, [उन कार्यों की अनुमोदना करता है ।] वह पाप का सञ्चय करता है ॥५॥
आदीणवित्तीव करेति पावं, मंता उ एगंतसमाहिमाहु । बुद्धे समाहीय रते विवेगे, पाणातिवाता विरते ठियप्पा
॥६॥ छाया - आदीनवृत्तिरपि करोति पापं, मत्वात्वेकान्तसमाधिमाहुः ।
बुद्धः समाधी च रतो विवेके, प्राणातिपाताद् विरतः स्थितात्मा ॥ अन्वयार्थ - (आदीणवित्तीव पावं करेति ) जो पुरुष दीनवृत्ति करता है अर्थात् कंगाल भीखारी का धंधा करता है, वह भी पाप करता है (मत्ता उ एगंतसमाहिमाह) यह जानकर तीर्थंकरों ने एकान्त समाधि का उपदेश किया है। (बद्ध ठियप्पा) इसलि (समाहीय विवेगे रते ) समाधि और विवेक में रत रहे । (पाणातिवाता विरते) एवं प्राणातिपात से निवृत्त रहे ।
भावार्थ - जो पुरुष कंगाल और भीखारी आदि के समान करुणाजनक धंधा करता है, वह भी पाप करता है यह जानकर तीर्थकरों ने भावसमाधि का उपदेश किया है । अतः विचारशील शुद्धचित्त पुरुष भावसमाधि और विवेक में रत होकर प्राणातिपात से निवृत्त रहे।
टीका - आ - समन्ताद्दीना - करुणास्पदा वृत्तिः - अनुष्ठानं यस्य कृपणवनीपकादेः स भवत्यादीनवृत्तिः, एवम्भूतोऽपि पापं कर्म करोति, पाठान्तरं वा आदीनभोज्यपि पापं करोतीति, उक्तं च - 2 "पिंडोलगेव दुस्सीले, णरगाओ ण मुच्चइ" स कदाचिच्छोभनमाहारमलभमानोऽज्ञत्वादातरौद्रध्यानोपगतोऽधः सप्तम्यामप्युत्पद्येत, तद्यथा - 1. किसी जगह किसी वस्तु को प्रत्यक्ष देखकर उसके समान दूसरी अप्रत्यक्ष वस्तु को जानना “सामान्यतोदृष्ट अनुमान" है, जैसे यह प्रत्यक्ष
देखा जाता है कि पाटलिपुत्र में जो देवदत्त कल देखा गया है, वह आज काशी में गति के कारण देखा जाता है क्योंकि वह यदि पाटलीपुत्र से चलकर काशी नहीं आता तो वह काशी में नहीं देखा जाता इससे यह सिद्ध होता है, कि एक जगह से दूसरी जगह पर गति के बिना कोई वस्तु नहीं प्राप्त होती है । इस प्रकार जब हम सूर्य को एक देश से दूसरे देश में देखते हैं तब देवदत्त की गति के समान ही सूर्य में भी गति का अनुमान करते हैं क्योंकि सूर्य में यदि गति न होती तो वह एक देश से दूसरे देश में कैसे प्राप्त होता ? अतः देवदत्त आदि में गतिपूर्वक देशान्तर की प्राप्ति देखकर सूर्य में अप्रत्यक्ष गति का अनुमान करना सामान्यतोदृष्ट अनुमान है । इसी तरह प्रत्यक्ष ही चोर आदि
को दुःख का फल भोगते हुए देखकर दूसरे पापियों का भी पाप का फल भोगना जाना जाता है । 2. पिण्डावलगकोऽपि दुःशीलो नरकान्न मुच्यते ।
४५०