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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते दशममध्ययने गाथा २२-२३
श्रीसमाध्यध्ययनम् दुःख स्थानों में ले जाकर महादु:ख देता है तथा वह सैकडों जन्म के लिए प्राणियों के साथ वैर उत्पन्न करता है और उससे मनुष्य मुक्त नहीं होता है । तथा उस पाप से जीव को महान् भय उत्पन्न होता है, अतः यह जानकर जीव पाप से अपने को निवृत्त करे। यहां "निव्वाणभूएव्व परिव्वज्जा" यह पाठान्तर मिलता है। इसका अर्थ यह है कि जैसे लड़ाई से लौटा हुआ पुरुष व्यापार रहित होकर किसी की हिंसा नहीं करता है, इसी तरह सावद्य अनुष्ठान से रहित पुरुष किसी का घात न करे किन्तु संयम का पालन करे ||२१||
मुसं न बूया मुणि अत्तगामी, णिव्वाणमेयं कसिणं समाहिं । सयं न कुज्जा न य कारवेज्जा, करंतमन्नपि य णाणुजाणे
छाया - • मृषा न ब्रूयान्मुनिराप्तगामी, निर्वाणमेतत्कृत्स्नं समाधिम् । स्वयं न कुर्य्याश च कारयेत्कुर्वन्तमन्यमपि च नानुजानीयात् ॥
अन्वयार्थ - ( अत्तगामी मुणि मुसं न बूया) सर्वज्ञोक्त मार्ग से चलनेवाला मुनि, झूठ न बोले । (एयं निव्वाणं कसिणं समाहिं ) यह झूठ बोलने का त्याग, सम्पूर्ण भावसमाधि और मोक्ष कहा गया है । ( सयं न कुज्जा न य कारवेज्जा) साधु झूठ बोलना तथा दूसरे व्रतों के अतिचारों को स्वयं न सेवन करे और दूसरे से सेवन न करावे (करंतमन्नंपि य णाणुजाणे ) तथा दोष सेवन करते हुए दूसरे को अच्छा नहीं जाने ।
भावार्थ - सर्वज्ञोक्त मार्ग से चलनेवाला मुनि झूठ न बोले । झूठ बोलने का त्याग सम्पूर्ण भावसमाधि और मोक्ष कहा गया है । इसी तरह साधु दूसरे व्रतों में भी दोष न लगावे और दूसरे के द्वारा भी दोष लगाने की प्रेरणा न करे एवं दोष लगाते हुए पुरुष को अच्छा न जाने ।
टीका- आप्तो - मोक्षमार्गस्तगामी
तद्गमनशील आत्महितगामी वा आप्तो वा प्रक्षीणदोषः सर्वज्ञस्तदुपदिष्टमार्गगामी "मुनिः " साधुः "मृषावादम्" अनृतमयथार्थं न ब्रूयात् सत्यमपि प्राण्युपघातकमिति, " एतदेव" मृषावादवर्जनं "कृत्स्नं" सम्पूर्ण भावसमाधिं निर्वाणं चाहुः, सांसारिका हि समाधयः स्नानभोजनादिजनिताः शब्दादिविषयसंपादिता वा अनैकान्तिकानात्यन्तिकत्वेन दुःखप्रतीकाररूपत्वेन वा असंपूर्णा वर्तन्ते । तदेवं मृषावादमन्येषां वा व्रतानामतिचारं स्वयमात्मना न कुर्यान्नाप्यपरेण कारयेत्तथा कुर्वन्तमप्यपरं मनोवाक्कायकर्मभिर्नानुमन्येत इति ॥ २२ ॥
॥२२॥
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टीकार्थ मोक्षमार्ग को आप्त कहते हैं, उसमें जानेवाले पुरुष को आप्तगामी कहते हैं अथवा अपना हित करनेवाले पुरुष को आप्तगामी कहते हैं अथवा जिसके रागादि दोष नष्ट हो गये हैं, उसे आप्त कहते हैं । वह सर्वज्ञ है । उनके द्वारा उपदेश किये हुए मार्ग से चलने वाले पुरुष को आप्तगामी कहते हैं, इस प्रकार वह आप्तगामी मुनि झूठ यानी अयथार्थ न बोले और जिस सत्य वचन से प्राणियों का घात होना सम्भव है, वह भी न बोले । यह झूठ बोलने का त्याग ही सम्पूर्ण भावसमाधि और मोक्ष है, यह विद्वान् कहते हैं । स्नान और भोजन आदि करने से तथा शब्दादि विषयों के सेवन करने से जो सांसारिक समाधि उत्पन्न होती है, वह निश्चित तथा आत्यन्तिक नहीं है, किन्तु दुःख के प्रतिकाररूप होने के कारण असम्पूर्ण है । अतः साधु झूठ बोलना अथवा दूसरे व्रतों के अतिचार को स्वयं सेवन न करे और दूसरे से भी न सेवन करावे तथा सेवन करते हुए को मन, वचन, शरीर और कर्म से अनुमोदन न करे ||२२||
उत्तरगुणानधिकृत्याह
अब शास्त्रकार उतरगुणों के विषय में कहते हैं
सुद्धे सिया जाए न दूसएज्जा, अमुच्छिए ण य अज्झोववन्ने । धितिमं विमुक्के ण य पूयणट्ठी, न सिलोयगामी य परिव्वज्जा
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॥२३॥
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