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सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते दशममध्ययने गाथा ३ श्रीसमाध्यध्ययनम् परैरदत्तं न गृह्णीयादिति तृतीयव्रतोपन्यासः, अदत्तादाननिषेधाच्चार्थतः परिग्रहो निषिद्धो भवति, नापरिगृहीतमासेव्यत इति मैथुननिषेधोऽप्युक्तः, समस्तव्रतसम्यक्पालनोपदेशाच्च मृषावादोऽप्यर्थतो निरस्त इति ॥२॥
(टीकार्थ)
सभी प्राणातिपात प्रज्ञापक ( कहनेवाले) की अपेक्षा से ऊपर, नीचे तथा तिरछे क्षेत्रों में किये जाते हैं अथवा ऊपर, नीचे और तिरछे तीनों लोको में अथवा पूर्वादि दिशा तथा विदिशाओं में किये जाते हैं (वे क्षेत्र प्राणातिपात हैं) अब द्रव्य प्राणातिपात के विषय में कहते हैं, जो प्राणी डरते हैं, वे त्रस कहलाते हैं । वे द्वीन्द्रिय आदि प्राणी हैं, उनको पीड़ा देना द्रव्य प्राणातिपात है) यहाँ चकार स्वगत भेद को सूचित करता है अथवा काल प्राणातिपात को सूचित करता है, इसलिए दिन तथा रात में प्राणियों को पीड़ा देना कालप्राणातिपात है । इन पूर्वोक्त प्राणियों को हाथ, पैर बाँधकर अथवा दूसरी तरह से पीड़ा देना भावप्राणातिपात है । अपने हाथ, पैर और शरीर को वश में रखकर इन प्राणियों की हिंसा न करनी चाहिए । इसी तरह उच्छ्वास, निश्वास, खाँसी, छींक, और अधोवायु निकलने के समय तथा मन, वचन, और शरीर की क्रिया के समय संयत बनकर भावसमाधि का पालन करना चाहिए । एवं दूसरे के द्वारा न दी हुई वस्तु को कभी नहीं लेना चाहिए । यह तीसरे व्रत का उपदेश किया गया है । यहाँ अदत्तादान के निषेध करने से परिग्रह का निषेध भी अपने आप सिद्ध हो जाता है । परिग्रह किये बिना किसी वस्तु का सेवन नहीं किया जाता है, इसलिए परिग्रह के निषेध से मैथुन का निषेध भी अर्थतः कहा हुआ समझना चाहिए । समस्त व्रतों के पालन के उपदेश से झूठ बोलने का निषेध भी अपने आप सिद्ध हो जाता है ||२||
ज्ञानदर्शनसमाधिमधिकृत्याह -
अब शास्त्रकार ज्ञान और दर्शनरूप समाधि का उपदेश करते हैं
सुयक्खायधम्मे वितिगिच्छतिण्णे, लाढे चरे आयतुले पयासु । आयं न कुज्जा इह जीवियट्ठी, चयं न कुज्जा सुतवस्सि भिक्खू
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छाया - स्वाख्यातधर्मा, विचिकित्सातीर्णः, लाढश्वरेदात्मतुल्यः प्रजासु । आयं न कुर्य्यादिह जीवितार्थी, चयं न कुर्य्यात् सुतपस्वी भिक्षुः ॥
॥३॥
अन्वयार्थ - (सुयक्खायधम्मे) श्रुत और चारित्र धर्म को अच्छी तरह प्रतिपादन करनेवाला (वितिगिच्छतिण्णे) तथा तीर्थङ्कर प्रतिपादित धर्म मैं शंका न करनेवाला (लाढे) तथा प्रासुक आहार से अपना निर्वाह करनेवाला (सुतवस्सि भिक्खू) उत्तम तपस्वी साधु ( पयासु आयतुले) पृथिवीकाय आदि जीवों को आत्मतुल्य समझता हुआ (चरे) संयम को पालन करे । (इह जीवियट्ठी आयं न कुज्जा) तथा इस लोक में जीने की इच्छा से आश्रवों का सेवन न करे (चयं न कुज्जा) एवं भविष्य काल के लिए धन, धान्य आदि का संचय न करे ।
भावार्थ - श्रुत और चारित्र धर्म को सुन्दर रीति से कहनेवाला तथा तीर्थकरोक्त धर्म में शङ्कारहित, प्रासुक आहार से शरीर का निर्वाह करनेवाला, उत्तम तपस्वी साधु, समस्त प्राणियों को अपने समान समझता हुआ संयम का पालन करे और इस लोक में चिरकाल तक जीने की इच्छा से आश्रवों का सेवन न करे एवं भविष्य काल के लिए धन, धान्य आदि का सञ्चय न करे ।
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टीका सुष्ट्वाख्यातः श्रुतचारित्राख्यो धर्मो येन साधुनाऽसौ स्वाख्यातधर्मा, अनेन ज्ञानसमाधिरुक्तो भवति, न हि विशिष्टपरिज्ञानमन्तरेण स्वाख्यातधर्मत्वमुपपद्यत इति भाव:, तथा विचिकित्सा - चित्तविप्लुतिर्विद्वज्जुगुप्सा वा तां “(वि)तीर्णः”- अतिक्रान्तः "तदेव च निःशङ्कं यज्जिनैः प्रबेदित" - मित्येवं निःशङ्कतया न क्वचिच्चित्तविप्लुतिं विधत्त इत्यनेन दर्शनसमाधिः प्रतिपादितो भवति, येन केनचित्प्रासुकाहारोपकरणादिगतेन विधिनाऽऽत्मानं यापयतिपालयतीति लाढ:, स एवम्भूतः संयमानुष्ठानं "चरेद्" अनुतिष्ठेत् तथा प्रजायन्त इति प्रजाः- पृथिव्यादयो जन्तवस्तास्वात्मतुल्यः, आत्मवत्सर्वप्राणिनः पश्यतीत्यर्थः, एवम्भूत एव भावसाधुर्भवतीति, तथा चोक्तम् -
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