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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते दशममध्ययने गाथा २ श्रीसमाध्यध्ययनम् को वनस्पति के छेदन का उपदेश करते हैं तथा वे स्वयं रुपया पैसा आदि नहीं छुते हैं परन्तु दूसरे के द्वारा उसका संग्रह कराकर उसके द्वारा खरीद विक्री कराते हैं। इसी तरह साढयवादी सभी पदार्थों को उत्पत्ति विनाश से रहित स्थिर एक स्वभावी नित्य मानते हैं । परन्तु ऐसा मानने से न तो कर्मबन्ध हो सकता है और न मोक्ष हो सकता है अतः इस दोष के भय से वे सभी पदार्थों का आविर्भाव और तिरोभाव मानते हैं। परन्तु यह मान्यता सरल नहीं अपितु कुटिल है (क्योंकि सब पदार्थों को नित्यानित्य मानने से कोई आपत्ति नहीं आती है तथापि ऐसा न मानकर सबको एकान्त नित्य मान लेना और पीछे आपत्ति आने पर उनका आविर्भाव तिरोभाव मानना सरल मार्ग नहीं है) परन्तु भगवान् महावीर स्वामी ने कुटिलमार्ग को छोड़कर सच्चे मार्ग का कथन किया है। भगवान् ने उस धर्म का कथन किया है जिसके द्वारा आत्मा अच्छी तरह मोक्ष या मोक्ष के मार्ग में स्थापन किया जाता है, उस धर्म को समाधि धर्म कहते हैं । यद्वा भगवान् ने धर्म और उसकी समाधि अर्थात् ध्यान आदि का उपदेश किया है । श्री सुधर्मास्वामी अपने शिष्यों से कहते हैं कि-"आप लोग भगवान् महावीर स्वामी के द्वारा उपदेश किये हुए उस धर्म को अथवा समाधि को सुनें" जो पुरुष अपने तप का फल ऐहलौकिक या पारलौकिक सुख नहीं चाहता है, वही वस्तुतः भिक्षु है अर्थात् वही सच्चा साधु है । तथा उसी ने धर्मसमाधि को प्राप्त किया है । अतः साधु प्राणियों का आरम्भ न करता हुआ अर्थात् सावधानुष्ठान को छोड़ता हुआ सब प्रकार से संयम के अनुष्ठान में प्रवृत्त रहे । अथवा साधु कर्मबन्ध के कारण आश्रवों का त्याग करता हुआ शुद्ध संयम का पालन करे । अथवा जो संसार के कारण नहीं हैं, उन्हें अनिदान कहते हैं, वे ज्ञान आदि हैं, उनमें साधु प्रयत्नशील बने, अथवा जो दुःख का कारण है, उसे निदान कहते हैं, अतः साधु अनिदान होकर यानी किसी प्राणी को दुःख उत्पन्न न करता हुआ संयम में पराक्रम करे ॥१॥ प्राणातिपातादीनि तु कर्मणो निदानानि वर्तन्ते, प्राणातिपातोऽपि द्रव्यक्षेत्रकालभावभेदाच्चतुर्धा, तत्र क्षेत्रप्राणातिपातमधिकृत्याह - प्राणातिपात आदि कर्मबन्ध के कारण हैं। प्राणातिपात द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव भेद से चार प्रकार का है । इनमें शास्त्रकार क्षेत्र प्राणातिपात के विषय में कहते हैं - उड्ढं अहे यं तिरियं दिसासु, तसा य जे थावर [रा] जे य पाणा । हत्थेहिं पाएहिं य संजमित्ता, अदिन्नमनेसु य णो गहेज्जा ॥२॥ छाया - ऊर्ध्वमधस्तिय॑न्दिशासु, प्रसाश्च ये स्थावरा ये च प्राणाः । हस्तेः पादेश्व संयम्य, अदत्तमन्येश्च न गृह्णीयात् ॥ अन्वयार्थ - (ऊड अहे यं तिरिय दिसासु) ऊपर, नीचे और तिरच्छे दिशाओं में (तसा थावर जे य पाणा) जो त्रस और स्थावर प्राणी रहते हैं (हत्थेहिं पाएहिं य संजमित्ता) उनको अपने हाथ पैर वश रखकर पीड़ा न देनी चाहिए (अन्नेसु य अदिन्नं णो गहेज्जा) तथा दूसरे से न दी हुई चीज न लेनी चाहिए। (भावार्थ) - ऊपर, नीचे और तिरच्छे तथा आठ ही दिशाओं में जो त्रस और स्थावर प्राणी निवास करते हैं, उनको हाथ पैर वश करके पीड़ा न देनी चाहिए तथा दूसरे से न दी हुई चीज न लेनी चाहिए । टीका - सर्वोऽपि प्राणातिपातः क्रियमाणः प्रज्ञापकापेक्षयोर्ध्वमधस्तिर्यक् क्रियते, यदिवा - ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्रूपेषु त्रिषु लोकेषु तथा प्राच्यादिषु दिक्षु विदिक्षु चेति । द्रव्यप्राणातिपातस्त्वयं - त्रस्यन्तीति वसा - द्वीन्द्रियादयो ये च "स्थावराः" पृथिव्यादयः, चकारः स्वगतभेदसंसूचनार्थः, कालप्राणातिपातसंसूचनार्थो वा दिवा रात्रौ वा, "प्राणाः" प्राणिनः, भावप्राणातिपातं त्वाह - एतान् प्रागुक्तान् प्राणिनो हस्तपादाभ्यां "संयम्य" बद्ध्वा उपलक्षणार्थत्वादस्यान्यथा वा कदर्थयित्वा यत्तेषां दुःखोत्पादनं तन्न कुर्यात्, यदिवैतान् प्राणिनो हस्तौ पादौ च संयम्य संयतकायः सन्न हिंस्यात्, चशब्दादुच्छ्वासनिश्वासकासितक्षुतवातनिसर्गादिषु सर्वत्र मनोवाक्कायकर्मसु संयतो भवन् भावसमाधिमनुपालयेत्, तथा xx
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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