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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते दशममध्ययने गाथा १
श्रीसमाध्यध्ययनम् त्वेनाभ्युपगम्य स्वयं न छिन्दन्ति तच्छेदनादावुपदेशं तु ददति तथा कार्षापणादिकं हिरण्यं स्वतो न स्पृशन्ति अपरेण तु तत्परिग्रहतः क्रयविक्रयं कारयन्ति, तथा साङ्खयाः सर्वमप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकस्वभावं नित्यमभ्युपगम्य कर्मबन्धमोक्षाभावप्रसङ्गदोषभयादाविर्भावतिरोभावावाश्रितवन्त इत्यादिकौटिल्यभावपरिहारेणावक्र तथ्यं धर्ममाख्यातवान्, तथा सम्यगाधीयते - मोक्षं तन्मार्ग वा प्रत्यात्मा योग्यः क्रियते व्यवस्थाप्यते येन धर्मेणासौ धर्मः समाधिस्तं समाख्यातवान्, यदिवा - धर्ममाख्यातवांस्तत्समाधिं च धर्मध्यानादिकमिति । सुधर्मस्वाम्याह - तमिमं - धर्म समाधिं वा भगवदुपदिष्टं शृणुत यूयं, तद्यथा - न विद्यते ऐहिकामुष्मिकरूपा प्रतिज्ञा - आकाङ्क्षा तपोऽनुष्ठानं कुर्वतो यस्यासावप्रतिज्ञो, भिक्षणशीलो भिक्षुः तुर्विशेषणे भावभिक्षुः, असावेव परमार्थतः साधुः, धर्म धर्मसमाधिं च प्राप्तोऽसावेवेति, तथा न विद्यते निदानमारम्भरूपं "भूतेषु" जन्तुषु यस्यासावनिदानः स एवम्भूतः सावधानुष्ठानरहितः परि-समन्तात्संयमानुष्ठाने "व्रजेद्" गच्छेदिति, यदिवा-अनिदानभूतः-अनाश्रवभूतः कर्मोपादानरहितः सुष्ठु परिव्रजेत् सुपरिव्रजेत्, यदिवाअनिदानभूतानि-अनिदानकल्पानि ज्ञानादीनि तेषु परिव्रजेत्, अथवा निदानं हेतुः कारणं दुःखस्यातोऽनिदानभूतः कस्यचिद्दुःखमनुपपादयन् संयमे पराक्रमेतेति ॥१॥
टीकार्थ - इस सूत्र का पूर्वसूत्र के साथ सम्बन्ध यह है- नवम अध्ययन की अन्तिम गाथा में कहा है कि "मुनि, सब सांसारिक सुखों को छोड़कर मोक्ष का साधन करे" अब यह बतलाते हैं कि केवलज्ञानी भगवान् महावीर स्वामी ने आगे कहे अनुसार धर्म का कथन किया है। उस भगवान् महावीर स्वामी का विशेषण बताने के लिए पूछते हैं कि वे भगवान् कैसे हैं। उत्तर - भगवान् मतिमान् हैं । समस्त पदार्थों के ज्ञान को मति कहते हैं, वह जिसमें विद्यमान है, उन केवलज्ञानी पुरुष को मतिमान् कहते हैं । यद्यपि केवलज्ञानी अनेक हुए हैं तथापि यहाँ "मतिमान्" यह असाधारण विशेषण कहने से तीर्थङ्कर का ही ग्रहण है और तीर्थङ्करों में सब से निकट होने के कारण भगवान् महावीर स्वामी का ही यहाँ ग्रहण है । भगवान् महावीर स्वामी ने श्रुत और चारित्ररूप धर्म कहा था । (प्रश्न) क्या करके कहा था ? (उत्तर) केवलज्ञानके द्वारा पदार्थों का स्वरूप जानकर उपदेश करने योग्य पदार्थों को लेकर धर्म का कथन किया था । अथवा भगवान् महावीर स्वामी ने पहले ग्राहक (धर्मसुननेवाले) पुरुष को विचारकर धर्म कहा था, जैसे कि-"यह पुरुष किस पदार्थ को ग्रहण कर सकता है । तथा यह पुरुष कौन है ? और यह किस देवता या गुरु को नमस्कार करता है एवं यह किस दर्शन का अनुयायी है इत्यादि बातों का निश्चय करके धर्म कहा था । अथवा धर्म की सेवा करनेवाले पुरुषों की यह मान्यता है कि भगवान हम लोगों के प्रत्येक का अभिप्राय जानकर धर्म का भाषण करते हैं । वह धर्मोपदेश एक ही समय सबलोगों की भाषा में परिणत हो जाता है । (प्रश्न) भगवान कैसे धर्म का उपदेश करते हैं ? - (उत्तर) भगवान् ऋजु अर्थात् सरल धर्म का उपदेश करते हैं अर्थात् जो वस्तु जैसी है, उसका वे वैसा ही स्वरूप बतलाते हैं (परन्तु बौद्ध आदि की तरह कुटिल धर्म का उपदेश नहीं करते हैं) क्योंकि, बौद्ध सब पदार्थों को क्षणिक मानते हैं अतः इनके मत में कृतनाश और अकृताभ्यागमरूप दोष आते हैं (यह इस प्रकार समझना चाहिए - यदि आत्मा क्षणिक हो तो वह पाप करने के पश्चात् ही मर जाता है फिर उस पाप का फल उसको नहीं प्राप्त हो सकता है अतः कर्म का फल कर्ता को नहीं प्राप्त होने से कृतनाश दोष आता है। तथा जो आत्मा दुःख भोगता है, उसने पाप नहीं किया था क्योंकि पाप करनेवाला आत्मा क्षणभङ्ग सिद्धान्त के अनुसार फल भोगनेवाले आत्मा से भिन्न है, अतः दूसरे के कर्म का फल दूसरे को प्राप्त होता है यह अकृताभ्यागम दोष आता है) इन दोषों का निवारण करने के लिए बौद्ध एक सन्तान स्वीकार करते हैं (और कहते हैं कि यद्यपि आत्मा क्षणिक है तथापि उसका सन्तान यानी सिलसिला चलता रहता है, वही उसका फल भोगता है दूसरा नहीं भोगता है इसलिए हमारे मत में कृतनाश और अकृताभ्यागम दोष नहीं आते हैं?)1 इसी तरह वे वनस्पति को अचेतन मानकर स्वयं उसका छेदन नहीं करते हैं परन्तु दूसरे 1. टिप्पणी १ वस्तुतः यह मत सरल नहीं है क्योंकि आत्मा को स्थिर न मानकर उसके बदले में एक सन्तान नामक पदार्थ मानने का क्या फल है?
सन्तान यदि क्षणिक है तब तो उसे मानना व्यर्थ है और यदि वह क्षणिक नहीं हैं तब फिर क्षणभगवाद नष्ट हो जाता है । तथा वह यदि प्रत्येक से भिन्न नहीं है तब उसको मानने का कोई प्रयोजन नहीं है और यदि भिन्न है तब तो नामान्तर से आत्मा ही स्वीकार करना है।
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