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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते दशममध्ययने गाथा १
श्रीसमाध्यध्ययनम् ने भावसमाधि में अपने आत्मा को स्थापन किया है, उसे सम्यक्चारित्र में स्थित जानना चाहिए। क्योंकि जो पुरुष दर्शन समाधि में स्थित है, वह जिन वचनों से रँगा हुआ अन्तःकरणवाला होने के कारण वायुरहित स्थान में रखे हुए दीपक के समान कुबुद्धिरूपी वायु से विचलित नहीं किया जाता है। तथा ज्ञान समाधि के द्वारा वह पुरुष ज्यों-ज्यों नयेनये शास्त्रों का अध्ययन करता है, त्यों-त्यों वह भावसमाधि में प्रवृत्त होता जाता है, जैसा कि कहा है
(जह-जह) अर्थात् जिनमें अतिशय रस का प्रसार है, ऐसे नये-नये शास्त्रों में ज्यों-ज्यों मुनि प्रवेश करता जाता है, त्यों-त्यों मोक्ष में श्रद्धा बढ़ने से वह आनन्द को प्राप्त होता है।
चारित्र समाधि में स्थित मुनि दरिद्र होने पर भी विषय सुख से निःस्पृह होने के कारण परम शान्ति का अनुभव करता है, अत एव कहा है कि
__ जिसके राग, मद और मोह नष्ट हो गये हैं, वह मुनि तृण की शय्या पर स्थित होकर भी जो आनन्द अनुभव करता है, उसे चक्रवर्ती राजा भी कहाँ पा सकता है ?
संसार के व्यापार से रहित मुनि को जो सुख इसी लोक में प्राप्त होता है, वह सुख राजाओं के राजा को अथवा देवराज को भी नहीं मिल सकता है।
तपः समाधि में स्थित मुनि को भारी तप करने पर भी ग्लानि नहीं होती है तथा क्षुधा, और तृष्णा आदि परीषहों से वह पीड़ित नहीं होता है। एवं आभ्यन्तर तप का अभ्यास किया हुआ मुनि ध्यान में लग्नचित्त होने के कारण मोक्ष में स्थित की तरह सुख दुःख से पीड़ित नहीं होता है । इस प्रकार चार प्रकार के भावसमाधि में स्थित साधु सम्यक् चारित्र में स्थित होता है.॥१०३-१०६॥ नाम निक्षेप समाप्त हुआ अब सूत्रानुगम में अस्खलित आदि गुणों के साथ सूत्र का उच्चारण करना चाहिए वह सूत्र यह है -
आघं मईमं मणुवीय धम्मं, अंजू समाहिं तमिणं सुणेह । अपडिन्नभिक्खू उ समाहिपत्ते, अणियाण भूतेसु परिव्वएज्जा
॥१॥ छाया - आख्यातवान् मतिमान्, अनुविचिन्त्य धर्मम्, ऋजु समाधि तमिमं शृणुत ।
अप्रतिहभिक्षुस्तु, समाधिप्राप्तोऽनिदानो भूतेषु परिव्रजेत् ॥ अन्वयार्थ - (मईम) केवलज्ञानी भगवान् महावीर स्वामी ने (मणुवीय) केवलज्ञान के द्वारा जानकर (अंजू समाहिं धम्म आघ) सरल और मोक्ष देनेवाले धर्म का कथन किया है । (तमिणं सुणेह) हे शिष्यों ! उस धर्म को तुम सुनो । (अपडिन्न) अपने तप का फल नहीं चाहता हुआ (समाहिपत्ते) समाधि को प्राप्त (अणियाणभूते) प्राणियों का आरम्भ न करता हुआ (भिक्खू सुपरिब्बएज्जा) साधु शुद्ध संयम का पालन करे ।
भावार्थ - केवलज्ञानी भगवान् महावीर स्वामी ने सरल तथा मोक्षदायक धर्म का कथन किया है । हे शिष्यों ! तुम उस धर्म को सुनो । अपने तप का फल नहीं चाहता हुआ तथा समाधियुक्त और प्राणियों का आरम्भ न करता हुआ साधु शुद्ध संयम का पालन करें।
टीका - अस्य चायमनन्तरसूत्रेण सह सम्बन्धः, तद्यथा- अशेषगारवपरिहारेण (ग्रं० ५५००) मुनिनिर्वाणमनुसन्धयेदित्येतद्भगवानुत्पन्नदिव्यज्ञानः समाख्यातवान् एतच्च वक्ष्यमाणमाख्यातवानिति, "आघं"ति आख्यातवान् कोऽसौ?"मतिमान्" मननं मतिः - समस्तपदार्थपरिज्ञानं तद्विद्यते यस्यासौ मतिमान् केवलज्ञानीत्यर्थः, तत्रासाधारणविशेषणोपादानात्तीर्थकृद् गृह्यते, असावपि प्रत्यासत्तेर्वीरवर्धमानस्वामी गृह्यते, किमाख्यातवान् ? - "धर्म" श्रुतचारित्राख्यं, कथम् ?"अनविचिन्त्य" केवलज्ञानेन ज्ञात्वा प्रज्ञापनायोग्यान पदार्थानाश्रित्य धर्म भाषते. यदिवा - ग्राहकमनविचिन्त्य कस्यार्थस्यायं ग्रहणसमर्थः? तथा कोऽयं पुरुषः ? कञ्च नतः ? किं वा दर्शनमापन्न ? इत्येवं पर्यालोच्य, धर्मशुश्रूषवो वा मन्यन्ते - यथा प्रत्येकमस्मदभिप्रायमनुविचिन्त्य [केवलज्ञानेन ज्ञात्वा] भगवान् धर्म भाषते, युगपत्सर्वेषां स्वभाषापरिणत्या संशयापगमादिति, किंभूतं धर्म भाषते ? - "ऋजुम्" अवक्रं यथावस्थितवस्तुस्वरूपनिरूपणतो, न यथा शाक्याः सर्वं क्षणिकमभ्युपगम्य कृतनाशाकृताभ्यागमदोषभयात्सन्तानाभ्युपगमं कृतवन्तः तथा वनस्पतिमचेतन
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