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सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते दशममध्ययने प्रस्तावना श्रीसमाध्यध्ययनम् व्यवस्थितो जिनवचनभावितान्तःकरणो निवातशरणप्रदीपवन कुमतिवायुभिर्भ्राम्यते, ज्ञानसमाधिना तु यथा यथाऽपूर्वं श्रुतमधीते तथा तथाऽतीव भावसमाधावुद्युक्तो भवति, तथा चोक्तम्
'जह जह सुयमवगाहइ अइसयरसपसरसंजुयमउव्वं । तह तह पल्हाइ मुणी णवणवसंवेगसद्धाए ||१|| चारित्रसमाधावपि विषयसुखनिःस्पृहतया निष्किञ्चनोऽपि परं समाधिमाप्नोति तथा चोक्तम्2aणसंथारणिसन्नोऽवि मुणिवरी भट्ठरागमयमोहो । जं पावइ मुत्तिसुहं कत्तो तं चकवट्टीवि 2 119|| नैवास्ति राजराजस्य तत्सुखं नैव देवराजस्य । यत्सुखमिहैव साधोर्लोकव्यापाररहितस्य ||२||
इत्यादि, तपःसमाधिनापि विकृष्टतपसोऽपि न ग्लानिर्भवति तथा क्षुत्तृष्णादिपरीषहेभ्यो नोद्विजते, तथा अभ्यस्ताभ्यन्तरतपोध्यानाश्रितमनाः स निर्वाणस्थ इव न सुखदुःखाभ्यां बाध्यत इत्येवं चतुर्विधभावसमाधिस्थः सम्यक्चरणव्यवस्थितो भवति साधुरिति ॥ १०३ - १०६ ॥ गतो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, साम्प्रतं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं तच्चेदं
टीकार्थ
जो पहले पहल आदि में ग्रहण किया गया है, उसे आदान कहते हैं। जो सुबन्त या तिङन्त पद अध्ययन के आदि में गृहीत होता है, उसे आदानपद कहते हैं, उसके हिसाब से इस अध्ययन का " आघ" नाम है, क्योंकि इस अध्ययन के आदि में " आघं मईमं" इत्यादि सूत्र है, इस सूत्र में पहले "आघ" पद आया है। जैसे उत्तराध्ययन सूत्र का चौथा अध्ययन प्रमाद और अप्रमाद का वर्णन करता हुआ भी आदान पद के हिसाब से "असंखय" कहा जाता है । परन्तु इस अध्ययन का गुणनिष्पन्न नाम समाधि अध्ययन है क्योंकि इस अध्ययन में समाधि का ही प्रतिपादन किया गया है । उस समाधि का नाम आदि निक्षेप करके इस अध्ययन में भावसमाधि का अधिकार कहना चाहिए । समाधि का निक्षेप करने के लिए कहते हैं, नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, और भाव भेद से समाधि का निक्षेप छः प्रकार का है। गाथा में आया हुआ 'तु' शब्द, "गुणनिष्पन्न नाम का ही निक्षेप होता है" यह बताने के लिए है । नाम और स्थापना सुगम हैं, इसलिए उन्हें छोड़कर द्रव्यादि निक्षेप के विषय में कहते हैं । मनोहर शब्द आदि पांच विषयों की प्राप्ति होने पर जो श्रोत्र आदि इन्द्रियों की तुष्टि होती है, उसे द्रव्यसमाधि कहते हैं और इससे विपरीत हो तो द्रव्य असमाधि कहते हैं । अथवा परस्पर विरोध नहीं रखनेवाले दो द्रव्य अथवा बहुत द्रव्यों के मिलाने से जो रस बिगड़ता नहीं किन्तु उस की पुष्टि होती है, उसे द्रव्यसमाधि कहते हैं, जैसे दूध और शक्कर तथा दही और गुड़ मिलाने से अथवा शाक आदि में नमक, मिर्च, जीरा और धनिया मिलाने से रस की पुष्टि होती हैं, अतः इस मिश्रण को द्रव्यसमाधि कहते हैं । अथवा जिस द्रव्य के खाने अथवा पीने से शान्ति प्राप्त होती है, उसे द्रव्य समाधि कहते हैं अथवा तराजू के ऊपर जिस वस्तु को चढ़ाने से दोनों बाजू समान हों उसे द्रव्यसमाधि कहते हैं । जिस जीव को जिस क्षेत्र में रहने से शान्ति उत्पन्न होती है, वह क्षेत्र की प्रधानता के कारण क्षेत्र समाधि है । अथवा जिस क्षेत्र में समाधि का वर्णन किया जाता है, उसे भी क्षेत्र समाधि कहते हैं। जिस जीव को जिस काल में शान्ति उत्पन्न होती है, वह उसके लिए कालसमाधि है, जैसे शरद् ऋतु में गौ को रात में उलूक को और दिन में कौवे को शान्ति उत्पन्न होती है । अथवा जिस जीव को जितने काल तक समाधि रहती है अथवा जिस काल में समाधि की व्याख्या की जाती है, वह काल की प्रधानता के कारण कालसमाधि है। अब भाव समाधि के विषय में कहते हैं, भावसमाधि, दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप के भेद से चार प्रकार की है, इन चारों भावसमाधियों को नियुक्तिकार गाथा के उत्तरार्ध के द्वारा संक्षेप से बताते हैं । मोक्ष की इच्छा रखनेवाले पुरुष जिसकी आराधना करते हैं, उसे चरण कहते हैं । वह सम्यक्चारित्र है । उसमें अच्छीतरह प्रवृत रहनेवाला मुनि समाहितात्मा कहलाता है, क्योंकि उसने दर्शन, ज्ञान, तप और चारित्ररूपी भावसमाधि के चारों भेदों में अपने आत्मा को अच्छी तरह स्थापन किया है । कहने का आशय यह है कि- जो पुरुष सम्यक्चारित्र में स्थित है, उसने अपने आत्मा को चारों भावसमाधियों में स्थापन किया है। अथवा जिस पुरुष 1. यथा यथा श्रुतमवगाहतेऽतिशयरसप्रसरसंयुतमपूर्वं । तथा तथा प्रह्लादते मुनिर्नवनगसंवेग श्रद्धया ||१|| 2. तृणसंस्तारनिविष्टोऽपि मुनिवरो भ्रष्टरागमदमोहः यत्प्राप्नोति मुक्तिसुखं कुतस्तत् चक्रवर्त्त्यपि ||१||
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