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सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते दशममध्ययने गाथा ४
'जह मम ण प्रियं दुक्खं, जाणिय एमेव सव्वजीवाणं । ण हणइ ण हणावेइ य, सममणई तेण सो समणी ||१||
यथा च ममाऽऽक्रुश्यमानस्याभ्याख्यायमानस्य वा दुःखमुत्पद्यते एवमन्येषामपीत्येवं मत्वा प्रजास्वात्मसमो भवति, तथा इहासंयमजीवितार्थी प्रभूतं कालं सुखेन जीविष्यामीत्येतदध्यवसायी वा "आयं" कर्माश्रवलक्षणं न कुर्यात्, तथा "चयम्" उपचयमाहारोपकरणादेर्धनधान्यद्विपदचतुष्पदादेर्वा परिग्रहलक्षणं संचयमायत्यर्थं सुष्ठु तपस्वी सुतपस्वी - विकृष्टतपोनिष्टप्तदेहो भिक्षुर्न कुर्यादिति ||३|| किञ्चान्यत्
टीकार्थ - श्रुत और चारित्ररूप धर्म का जो अच्छी तरह उपदेश करता है, उस साधु को स्वाख्यातधर्मा कहते हैं । इस विशेषण के द्वारा ज्ञानसमाधि बताई गयी है, क्योंकि उच्चकोटि का ज्ञान हुए बिना अच्छी रीति से धर्म का प्रतिपादन नहीं किया जा सकता है । चित्त की शङ्का को अथवा विद्वानों की निन्दा को जुगुप्सा कहते हैं, उसको छोड़कर, "जिनेश्वर ने जो कहा है, वही सत्य है" यह मानकर चित्त में शङ्का नहीं लाता हुआ. ( यह कहकर दर्शनसमाधि बताई है) तथा जो कुछ प्रासुक आहार या उपकरण प्राप्त हो उसी से अपना निर्वाह करता हुआ साधु संयम पालन करे । जो बार-बार जन्म लेते हैं, उन्हें प्रजा कहते हैं, वे पृथिवी आदि प्राणी हैं, इन प्राणियों को अपने समान देखनेवाला पुरुष भावसाधु कहा जाता है। अत एव कहा है कि
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(जह मम ) अर्थात् जैसे मुझको दुःख प्रिय नहीं है, इसी तरह सभी जीवों को नहीं है, यह जानकर जो स्वयं जीवों का हनन नहीं करता है और दूसरे से हनन नहीं कराता है किन्तु समभाव से रहता कहलाता है ।
वह साधु श्रमण
श्रीसमाध्यध्ययनम्
तथा साधु यह जानता है कि जैसे मुझ को कोई धमकाता है अथवा कलङ्क लगाता है, तो मुझको दुःख उत्पन्न होता है, इसी तरह अन्य प्राणियों को भी दुःख उत्पन्न होता है । अतः साधु समस्त प्राणियों को अपने समान मानता है । साधु इस लोक में असंयम जीवन का इच्छुक अथवा मैं चिरकाल तक जीवित रहूं ऐसा निश्चय कर कर्मों के आश्रव का सेवन न करे एवं तप से अपने शरीर को अच्छी तरह तपाया हुआ साधु भविष्य काल के लिए आहार और उपकरण आदि एवं धन, धान्य, द्विपद और चतुष्पद आदि का परिग्रह रूप संचय न करे ||३||
सव्विंदियाभिनिव्वुडे पयासु, चरे मुणी सव्वतो विप्पमुक्के । पासाहि पाणे य पुढोवि सत्ते, दुक्खेण अट्टे परितप्यमाणे
छाया - सर्वेन्द्रियाभिर्निर्वृतः प्रनासु, चरेन्मुनिः सर्वतो विप्रमुक्तः । पश्य प्राणांश्च पृथगपि सत्त्वान्, दुःखेनार्त्तान् परितप्यमानान् ॥
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कलानि वाक्यानि विलासिनीनां, गतानि रम्याण्यवलोकितानि । रतानि चित्राणि च सुन्दरीणां, रसोऽपि गन्धोऽपि च चुम्बनानि ॥१॥ तदेवं स्त्रीषु पञ्चेन्द्रियविषयसम्भवात्तद्विषये संवृतसर्वेन्द्रियेण भाव्यम्, एतदेव दर्शयति 1. यथा मम न प्रियं दुःखं ज्ञात्वा एवमेव सर्वसत्त्वानां । न हन्ति न घातयति च सममणति तेन स श्रमणः ||१||
अन्वयार्थ - ( पयासु सव्विंदियाभिनिव्वुडे) साधु स्त्रियों के विषय में अपनी समस्त इन्द्रियों को रोककर जितेन्द्रिय बने । (सव्वतो विष्पमुक्के मुणी चरे) तथा बाहर और भीतर सभी बन्धनों से मुक्त होकर साधु संयम पालन करे । (पाणे य पुढोवि सत्ते) अलग अलग प्राणिवर्ग (अट्टे दुक्खेण परितप्पमाणे) आर्त्त और दुःख से तप्त हो रहे हैं (पासाहि ) यह देखो ।
भावार्थ - साधु स्त्रियों के विषय में अपनी समस्त इन्द्रियों को रोककर जितेन्द्रिय बने तथा सब प्रकार के बन्धनों से मुक्त होकर शुद्ध संयम का पालन करे । इस लोक में अलग अलग प्राणिवर्ग दुःख भोग रहे हैं, यह देखो । टीका सर्वाणि च तानि इन्द्रियाणि च स्पर्शनादीनि तैरभिनिर्वृतः संवृतेन्द्रियो जितेन्द्रिय इत्यर्थः क्व ? - "प्रजासु" स्त्रीषु, तासु हि पञ्चप्रकारा अपि शब्दादयो विषया विद्यन्ते, तथा चोक्तम् -
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"चरेत्" संयमानुष्ठान